गणतंत्र में बस तंत्र की बल्ले—बल्ले?

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आज से ठीक 73 साल पूर्व इसी दिन 26 जनवरी 1950 को भारत द्वारा जिस संविधान को अंगीकार किया गया था आज हम गणतंत्र दिवस के रूप में उसका जन्मोत्सव बना रहे हैं। देश के इस संविधान की सर्वाेच्चता को इस लिहाज से भी समझा जा सकता है कि इसी संविधान की संहिता का अनुसरण करके हमारे देश ने विश्व के सबसे पुराने गणतांत्रिक देश होने का गौरव प्राप्त किया है। भारतीय संविधान की पृष्ठभूमि में जिन गणतंत्र और धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्दों को समाहित किया गया है वह कोई शब्द मात्र नहीं है हमारे संविधान की आत्मा है। गणतंत्र जिन दो शब्दों का जोड़ है वह बताता है कि जनता के लिए जनता द्वारा बनाया गया वह तंत्र जिसमें सभी धर्मों, जातियों और वर्गों को समानता का अधिकार प्राप्त है। गण का अर्थ आम आदमी होता है और तंत्र उस शासन प्रणाली को कहा जाता है जिस पर जनता के हितों के अनुकूल व्यवस्था करने की जिम्मेवारी होती है। समय की जरूरतों के अनुसार समाज की जरूरतें भी बदलती है। देश के संविधान में 2021 तक किए गए 105 संशोधन इस संविधान को समय सापेक्ष बनाए रखने के लिए ही किए गए हैं। लेकिन आज जब देश अपना 74वां गणतंत्र दिवस मना रहा है तब इस बात पर विचार किया जाना जरूरी है कि क्या इस गणतंत्र में जिसमें गण को प्राथमिकता पर रखा गया है क्या उसके हितों के अनुकूल तंत्र ने अपना कर्तव्य निर्वहन किया है? आमतौर पर आपने यह बात सुनी होगी कि आम आदमी की बात सुनी ही नहीं जाती है नेता और अधिकारी जो चाहे करें। जहां इस तरह की व्यवस्था हो क्या उसे गणतंत्र कहा जा सकता है या फिर सिर्फ आम आदमी को वोट का अधिकार देकर ही गणतंत्र की परिकल्पना हो जाती है। अगर जमीनी स्थिति पर गौर किया जाए तो सच यही है कि हमारे इस गणतंत्र में गण का लोप हो चुका है और तंत्र उस पर इस कदर हावी है कि आम आदमी का कोई वजूद ही नहीं गया है। एक आम आदमी अपनी छोटी से छोटी समस्या को लेकर अगर किसी अधिकारी या कर्मचारी अथवा नेता के पास जाता है तो उसकी समस्या के समाधान की जगह उसका शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण ही होता है। किसी पुलिस और थाने चौकी में एक एफआईआर लिखवाना भी एक आम आदमी के लिए पानीपत की जंग जीत लेने से कम नहीं होता है। अगर आम आदमी किसी हक की लड़ाई को अदालत के दरवाजे तक लेकर पहुंच गया तो उसकी सारी उम्र कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने में ही कट जाती है। आजादी के इस अमृत काल तक आते—आते देश में कोई नेता या अधिकारी भले ही गरीब न रहा हो लेकिन देश की 60 फीसदी आबादी अभी भी मुफ्त के सरकारी राशन पर जिंदा है और मनरेगा में मजदूरी कर करोड़ों लोग अपना पेट भरने पर मजबूर हैं। फिर इस गणतंत्र में गण कहां है बस तंत्र ही तो शेष बचा है। सवाल यह है कि क्या कभी इस देश का तंत्र गण के हितों पर भी गौर करेगा? और अगर करेगा तो कब?

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