देसी—पहाड़ी की राजनीति राज्य के लिए घातक

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  • सामाजिक विभाजन की राजनीति के पीछे राज्य की छवि को धूमिल करने का प्रयास

देहरादून। उत्तराखंड के माननीय विधायक और सांसद अपने अर्मयादित व्यवहार और अज्ञानता के कारण अपनी खूब किरकिरी करा रहे हैं। ढाई दशक से इस राज्य की राजनीति अब एक ऐसे मुकाम की ओर बढ़ चुकी है जहां टकराव कुर्ता घसीटन तथा सामाजिक विभाजन की तपिश को साफ महसूस किया जा रहा है।
देसी और पहाड़ी के मुद्दे की जो गंूज हमें सड़कों से सदन तक सुनाई दे रही है वह इसकी एक बानगी भर है। इस विवाद के दौरान स्पीकर ऋतु खंडूरी के उस बयान पर भी गौर किया जाना चाहिए जिसमें उन्होंने विधायकों और मंत्रियों के आचरण पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि हम चौराहे पर नहीं बैठे हैं। देश की बात छोड़िए विदेश से भी टिप्पणी आ रही है कि आपके सदन में हो क्या रहा है। वह कहते हैं कि हम देवभूमि के लोग हैं इस तरह का आचरण हमें कतई भी शोभा नहीं देता है।
संसदीय कार्यमंत्री प्रेमचंद ने सदन में जो कुछ उत्तराखंड के लोगों के बारे में कहा या उनके मुंह से निकल गया इससे पूर्व कुंवर प्रणव चैपियन ने पहाड़ के लोगों के बारे में जो अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया उसे कोई उचित नहीं ठहरा सकता है। लेकिन प्रेमचंद द्वारा सदन में खेद व्यक्त करने के बाद भी इस मुद्दे पर अब भी जिस तरह तूल दिया जा रहा है या सभी दल व नेता इस आग को भड़काने पर आमादा दिख रहे हैं उन्हें इसके दूरगामी परिणामों पर भी गौर करने की जरूरत है। उत्तराखंड की यह आग दूसरे प्रदेशों तक नहीं जानी चाहिए इससे सबसे ज्यादा नुकसान उत्तराखंड को ही होगा। क्योंकि देश के तमाम राज्यों में पहाड़ के लोग रहते हैं।
राज्य में पहाड़ी—मैदानी और देसी पहाड़ी या गढ़वाली—कुमाऊनी की सामाजिक विभाजनकारी सोच राज्य के हित में नहीं है यही नहीं राज्य में लैंड जिहाद और लव जिहाद के नाम पर पहले ही हिंदू—मुस्लिम की राजनीति हावी हो चुकी है। अब अगर इसमें अन्य राज्यों की तरह तमाम और मुद्दे भी जुड़ते चले जाएंगे तो यह इससे राज्य को विकास की ओर नहीं विनाश की ओर ही ले जाएंगे। पूरे राज्य में इस मुद्दे को हवा देने वाले भाजपा के लिए ही नुकसान नहीं पहुंचाएंगे बल्कि पूरे राज्य को नुकसान पहुंचाएंगे यह सभी के लिए विचारणीय है।

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