सांप्रदायिकता की आग पर राजनीति

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भले ही वह चंद लोग हैं जो समाज में धार्मिक और सांप्रदायिक रंग भरने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन इन लोगों को संरक्षण देने वालों की कतार बहुत लंबी है। राजनीतिक दल और उसके तमाम छोटे—बड़े अनुषांगिक संगठनों की शह के बिना वह सब नहीं हो सकता है जो इस समय देश में हो रहा है। घटना चाहे कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद का घर जलाने की हो या राजस्थान के एक कॉलेज में नमाज अता किए जाने की अथवा फिल्म अभिनेत्री कंगना रानौत की देश की आजादी भीख में मिलने वाले बयान की। पूरे देश में इन दिनों सिलसिलेवार जिस तरह की घटनाएं घटित हो रही है उन्हें देश के समाज की संप्रभुता, एकता, अखंडता व आपसी भाईचारे के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है। यूं तो हर एक चुनाव से पूर्व तमाम राजनीतिक दल और नेता कुछ न कुछ ऐसी शगूफे बाजी और बयान बाजी हमेशा ही करते आए हैं जो वोटों का ध्रुवीकरण का जरिया बन सके लेकिन धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता की आग से देश अब तक कितना नुकसान उठा चुका है तथा देश के सामाजिक ताने—बाने को कितनी क्षति हुई है इस पर अभी भी कोई दल और नेता गौर करने को तैयार नहीं है जो सबसे दुख की बात है। बात चाहे देश में स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों की रही हो या फिर अयोध्या की बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद हुए दंगों की। इन बड़ी—बड़ी घटनाओं से भी अगर कोई सबक नहीं लिया गया है तो फिर देश के नेताओं से किसी सकारात्मक समाज की संरचना की उम्मीद करना बेमानी ही हो जाता है। एक दूसरे के धर्म और महापुरुषों तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर टीका टिप्पणी करने वालों को एक बार फिर इस बात पर गौर करने की जरूरत है, राष्ट्र और समाज निर्माण में उनका अपना क्या योगदान है? उन्होंने देश और समाज तथा संस्कृति के उत्थान के लिए क्या किया है? या फिर क्या उनका सिर्फ यही काम है कि वह दूसरे के बारे में टीका टिप्पणियां कर चर्चाओं के केंद्र में स्वयं को बनाए रखें। यह हैरान करने वाली बात ही है कि देश की आजादी और विभाजन के 75 साल बाद भी हम इस मुद्दे पर चुनाव लड़ने और जीतने का मंसूबा बनाये हुए हैं कि जिन्ना स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे या देश के टुकड़े टुकड़े करने वाले षड्यंत्रकारी। अखिलेश और कंगना रनौत को जिन्ना और सुभाष चंद्र बोस पर क्या बात करनी चाहिए उनके जीवन का वह कालखंड क्या उन्होंने देखा था? देखना तो दूर उन्होंने उनके बारे में ज्यादा कुछ पढ़ा भी नहीं होगा। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्तमान दौर में हर वक्तव्य को उस ढंग से नहीं देखा समझा जा रहा है जिस मंशा से कोई वक्तव्य दिया जाता है सोशल मीडिया हर बात का बतंगड़ बनाने में इस समय सबसे अहम भूमिका निभा रहा है। पश्चिमी बंगाल के चुनाव के पूर्व व बाद में जिस तरह की हिंसात्मक घटनाएं सामने आई हैं और अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पूर्व जैसा माहौल तैयार होता दिख रहा है उसके मद्देनजर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वह चंद लोग जो फिजाओं में जहर घोल रहे हैं वह पूरे देश को सांप्रदायिकता में झौंकने पर आमादा है जिनसे सतर्क रहने की जरूरत है।

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