ऐसे हाई अलर्ट का क्या लाभ?

0
336

मौसम विभाग की पूर्व चेतावनी और शासन प्रशासन के हाई अलर्ट के बावजूद भी आसमानी आफत के दो दिनों ने उत्तराखंड के लोगों को जो दर्द दिया है उसके जख्म नासूर बनकर लंबे समय तक रिसते रहेंगे। आपदा का दौर भले ही गुजर चुका हो लेकिन अपने पीछे बड़ी बर्बादी के निशान छोड़ गया है। राज्य में इस आपदा के कारण अब तक 60 के लगभग जाने जा चुकी हैं जबकि दो दर्जन के करीब लोग लापता है। राज्य सरकार के अनुसार इससे सात हजार करोड़ का नुकसान होने की बात कही जा रही है। दो दिन की इस प्रलयंकारी आपदा में सड़कें टूट गई, पुल बह गए, मकान ढह गए तथा रेलवे ट्रैक तक उखड़ गए। सवाल यह है कि जब दो दिन पूर्व इस आपदा के बारे में चेतावनी दी जा चुकी थी तो फिर इससे निपटने की तैयारियां क्यों नहीं की गई? जितने व्यापक स्तर पर इस आपदा से जानमाल का नुकसान हुआ है वह यह समझने के लिए काफी है कि न तो पूर्व चेतावनी का और न हाई अलर्ट का कोई लाभ है तथा न बचाव व राहत के नाम पर किए जाने वाले कामों का। मलबे में दबे लोगों को 36 घंटे बाद निकाले जाने पर क्या आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि वह जिंदा होंगे। यह बचाव और राहत कार्य सिर्फ सांप के निकल जाने पर लकीर पीटने जैसा ही कहा जा सकता है। सूबे के आपदा प्रबंधन को चुस्त और दुरुस्त बनाने की बातें बीते एक दशक से की जा रही हैं। आपदा राहत टीमों के क्यूक रिएक्शन और एक्शन पर भी बहुत सारे दावे किए जाते हैं। रिस्पांस टाइम को घंटों से कम कर मिनटों की बात कही जाती हो लेकिन धरातल की जो सच्चाई है वह बिल्कुल अलग है। अब तक की तमाम आपदाओं के समय हम यह देख चुके हैं कि जब सब कुछ खत्म हो चुका होता है तब मदद और राहत का काम शुरू हो पाता है। हर घटना के बाद रास्तों और सड़कों के बंद होने, मौसम के खराब होने तथा पहाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों का हवाला देकर नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिशें की जाती है। आपदा की दृष्टि से संवेदनशील और अतिसंवेदनशील जिन गांवों को विस्थापित करने की बात होती है उनके चिन्हीकरण के 10 साल बाद तक उनकी सुध किसी के द्वारा नहीं ली जाती है। हम आपदा के बाद एक घिसी पिटी परिपाटी की तरह प्रभावितों को मुआवजे की घोषणा और आर्थिक नुकसान की क्षतिपूर्ति का ऐलान कर दिया जाता है। जबकि आपदा काल में बेघर हुए लोगों को सालों साल अपने बच्चों के साथ टैंटो में जीवन गुजारने पर विवश होना पड़ता है। पीछे वालों की मदद का काम जब तक पूरा नहीं हो जाता है तब तक फिर किसी नई आपदा सामने आकर खड़ी हो जाती है और शासन—प्रशासन पुराने आपदा के पीड़ितों को भूलकर नये आपदा पीड़ितों की मदद में जुट जाता है। सवाल यह है कि विषम परिस्थितियों वाले प्रांतों में आपदा का क्रम निश्चित तौर पर जारी रहना है तो फिर सरकारों द्वारा एक व्यवस्थित तंत्र क्यों नहीं विकसित किया जाता है जो आपदा प्रभावितों को तत्काल मदद मुहैया करा सके और उन्हें मरने से पहले मलबे से बाहर निकाल सके।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here