विकास की दौड़ विनाश की ओर

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सिलक्यारा सुरंग हादसे के बाद विकास के पैरोकारों और पर्यावरण के हित चिंतकों के बीच एक बार फिर जंग छिड़ गई है। जन सरोकारों पर होने वाली बहस बहुत अच्छी बात है लेकिन ऐसी किसी बहस का नतीजा तक पहुंचना भी जरूरी होता है। लंबे समय से जारी इस चर्चा या बहस का नतीजा आज तक किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सका है यह दुखद है। चारधाम सड़क परियोजना और पहाड़ पर रेल पहुंचाने के लिए वर्तमान में जो योजना—परियोजनाएं गतिमान है उनके लिए तमाम सुरंग का निर्माण हो रहा है या होना है। रेल लाइनों को बिछाने या फिर सड़कों को चौड़ा करने तथा चकाचक बनाने के लिए पहाड़ों को खोदा जाना और पेड़ों का काटा जाना जरूरी है। बेहिसाब विकास चाहिए तो फिर प्रकृति के साथ होने वाली इस अंधाधुंध छेड़छाड़ से भी नहीं बचा जा सकता है। विकास की चाह रखने वाले विनाश की चिंता से बेपरवाह है और उन्हें भावी भविष्य के खतरों से कुछ लेना—देना नहीं है वहीं पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण को जरूरी मानने वाले ऐसे विकास को विनाश की संज्ञा देते हैं जो आने वाली पीढियों के लिए अभिशाप बन जाएगा। अभी हाल ही में हुए तमाम सर्वेक्षण इस बात की तस्दीक भी करते हैं कि अनियोजित विकास के कारण भूधसांव तथा भूस्खलन की घटनाएं ही नहीं बढ़ रही हैं भूकंप और बाढ़ जैसी आपदाओं को भी आमंत्रित कर रही हैं। अभी जोशीमठ के अस्तित्व पर जो भूधसाव का खतरा मंडरा रहा है वह इसका ताजा उदाहरण है जोशीमठ ही नहीं चमोली, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी के अन्य तमाम क्षेत्रों के साथ टिहरी के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों तक इस समस्या को देखा जा सकता है वर्तमान समय में जाें सिलक्यारा क्षेत्र में सुरंग निर्माण किया जा रहा है वहां साल भर पहले भी सुरंग निर्माण के लिए सर्वे किया गया था लेकिन पहाड़ के अंदर कई जल स्रोतों के मिलने के कारण इसे रोकना पड़ा था। इस क्षेत्र का जो ऊपरी इलाका है वह गंगा—जमुना का जलागम क्षेत्र है। अनेक भूगर्भीय पावर लाइन पहाड़ों के अंदर बिछी पड़ी है। जो इस हिमालयी क्षेत्र को कमजोर बनाती हैं। अब इसी क्षेत्र में 415 किलोमीटर लंबी सुरंग का निर्माण अगर बिना किसी भूगर्भीय सर्वेक्षण के किया जा रहा है तो उसके नकारात्मक परिणाम सामने आना स्वाभाविक है। जब टिहरी बांध का काम शुरू हुआ था तब उसका भारी विरोध पर्यावरणविदों द्वारा किया गया था लेकिन उसे अनसुना कर दिया गया और वर्तमान में विकास के नाम पर जो कुछ बीते कुछ सालों से पहाड़ में हो रहा है उसे रोकना न जा सके और विरोध करने वालों को दकियानूसी विचारधारा के लोग बताकर उन्हें दरकिनार कर दिया जाए लेकिन इस हिमालय क्षेत्र की जटिल और अति संवेदनशीलता को नकारा जाना बड़े विनाश का कारण बन सकता है। विकास की अंधी दौड़ और पहाड़ पर रेल तथा उघोग चढ़ाने की कोशिशें के बीच अगर पहाड़ की और प्रकृति की संवेदनशीलता के बीच संतुलन बनाए नहीं रखा गया तो इसके परिणाम अत्यंत ही गंभीर और घातक होंगे। अभी केदारपुरी की आपदा को बहुत लंबा समय नहीं हुआ है और न उत्तराखंड के उत्तरकाशी के भूकंप की विनाश लीला को लोग भूले हैं। ऐसी स्थिति में विनाश की कीमत पर होने वाले विकास के कोई मायने नहीं रह जाते हैं।

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