यह आखिर कैसा नया भारत है जहां आजादी के साढे सात दशक बाद इस बात पर बवाल खड़ा किया जा रहा है कि देश का एक नाम हो और वह भारत हो। इस व्यर्थ के विमर्श को खड़ा करने वालों की इसके पीछे आखिर मंशा क्या है, देश को भारत कहा जाए या हिंदुस्तान अथवा इंडिया इससे क्या फर्क पड़ता है? 75 सालों में इस देश ने जो मुकाम हासिल किया है क्या यह नाम इस देश की प्रगति और राजकाज में किसी तरह की बधाएं डाल रहे हैं। भले ही देश के नेताओं को कुछ भी लगता हो लेकिन देश की जनता को ऐसा कुछ नहीं लगता है। हर देशवासी को भारत से जितना प्यार है उतना प्यार उसे हिंदुस्तान और इंडिया से भी है। लेकिन इस देश की वर्तमान सरकार को लगता है कि वह जो भी कहे या सोचे वही सही है तथा उसे ही सबको मानना चाहिए और कोई न माने तो उसे जबरदस्ती मनवाओ क्योंकि हम पूरे बहुमत के साथ सत्ता में है। लेकिन यह भावना देश के लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है हमारे संविधान की प्रस्तावना ही जब वी आर द सिटीजन ऑफ इंडिया से होती है और संविधान में जब वह उल्लेख है कि इंडिया दैट इज भारत तो आखिर अब इसे बदलने और इसकी जगह रिपब्लिक आफ भारत करने का प्रयास इस दृढ़ता से क्यों किया जा रहा है कि इसका विरोध करने वालों को भारत विरोधी बता दिया जाए। सच बात यह है कि देश की वर्तमान सरकार ने अपने किसी भी काम के खिलाफ बोलने वालों को भारत विरोधी या राष्ट्रीय विरोधी कहे जाने को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की रवायत बना ली है। भले ही इस मुद्दे पर सत्ता में बैठे लोग कुछ भी कहे या तर्क दे लेकिन सरकार द्वारा राष्ट्रपति भवन से जारी किए गए निमंत्रण पत्रों में रिपब्लिक आफ भारत लिखकर अपने मंसूबे साफ कर दिए हैं कि वह क्या चाहती है। इस पर देश भर से आ रही क्रिया प्रतिक्रियाओं से यह साफ हो गया है कि इस मुद्दे पर पूरा देश दो विचारधाराओं में बट गया है। जो इस बात की पुष्टि करता है कि भाजपा की सरकार का हर आदेश देश के समाज को बांटने वाला होता है वह बात एक देश एक नाम की बात हो या फिर एक देश एक कानून यानी (यूसीसी) की बात हो। यह सभी काम भारत की उस राष्ट्रीय विविधता की सभ्यता और संस्कृति के खिलाफ है जिसके लिए भारत को विश्व में जाना जाता है। इन दिनों सरकार ने एक देश एक चुनाव का भी राग छेड़ा हुआ है। सवाल यह है कि सरकार 1967 वाली पूर्व व्यवस्था को लागू कर पीछे क्यों लौटना चाहती है जब दुनिया आगे और आगे बढ़ रही है। वर्तमान में इलेक्ट्रानिक मशीनों से मतदान हो रहा है हो सकता है आप कल फिर वैलिड पेपर से चुनाव की बात करने लगे। ऐसा लगता है कि वर्तमान दौर के नेताओं के लिए राजनीति का मतलब सिर्फ हर रोज नए विवाद और उन पर विमर्श खड़े करना ही रह गया है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल इंडिया का नाम बदलकर भारत करने संबंधी याचिका को खारिज करते हुए कहा कि भारत के लोग भारत या इंडिया दोनों में से कोई भी नाम लिख या बोल सकते हैं उन्हें रोका नहीं जा सकता मगर देश की वर्तमान सरकार की समझ में न देश की सबसे बड़ी अदालत की मंशा समझ में आ रही है और न संविधान की भाषा और न देश के मन की बात। उन्हें तो सिर्फ संघ प्रमुख मोहन भागवत की बात ही समझ में आ रही है जिन्होंने अभी चन्द रोज पूर्व कहा था कि इंडिया का नाम बदलकर भारत कर दिया जाना चाहिए। सरकार को उनका यह सुझाव जचने का एक कारण यह भी हो सकता है कि विपक्षी गठबंधन ने अपना नाम इंडिया रख लिया है जो अब भाजपा के नेताओं को डरा रहा है। सरकार अगर इंडिया से डर कर देश का नाम बदलने पर तुली है तो इससे निम्न स्तर की राजनीति और कुछ नहीं हो सकती।