मणिपुर में पिछले तीन—चार महीने से जो कुछ हो रहा है या फिर 4 मई को महिलाओं के साथ जो कुछ हुआ उसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है। बीते कल सुप्रीम कोर्ट ने अगर यह केंद्र सरकार और राज्य सरकार के सामने सवाल रखा है तो यह स्वाभाविक ही है। महिलाओं की सुरक्षा के इस सवाल से कोई भी सरकार या व्यक्ति यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकता है कि जो कुछ हुआ वह शर्मसार करने वाला या निंदनीय है। सत्ता में बैठे लोगों को इसकी जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी। अब अगर सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह कहा गया है कि मणिपुर की घटना की तुलना निर्भया कांड या अन्य किसी राज्य में घटित घटनाओं से नहीं की जा सकती है और इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए एक तंत्र विकसित करना ही होगा तो इसका सीधा मतलब है कि सरकार कुछ ऐसे ठोस कदम उठाए जो यह सुनिश्चित करें कि देश में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। अदालत का कहना है कि बात सिर्फ उन महिलाओं तक सीमित नहीं है जिनके वीडियो सामने आए उन तमाम अन्य महिलाओं की भी है जो हिंसा शोषण और अपमान की शिकार हुई। कोर्ट ने 3 मई के बाद की घटनाओं का ब्यौरा मांगते हुए कहा कि अन्य तमाम मामलों में अब तक क्या कार्रवाई की गई है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मणिपुर की घटनाओं ने देश को झकझोर कर रख दिया है। लेकिन इन शर्मनाक घटनाओं पर राजनीति का जो रवैया देखने को मिला है वह उससे भी बड़ी शर्म की बात है। सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख के बाद अब यह उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारी तंत्र की भी नींद टूटेगी तथा महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर न सिर्फ नए सिरे से विचार मंथन होगा अपितु सख्त कानून भी बन पाएंगे। इस मुद्दे को लेकर संसद में आठ दिनों से हंगामा हो रहा है विपक्ष प्रधानमंत्री को सदन में आने और इस पर बयान देने की जिद पर अड़ा है वहीं विपक्ष का यह भी आरोप है कि सरकार अपनी जवाबदेही से बचने के लिए उस पर सदन की कार्यवाही न चलने देने का आरोप लगा रही है। सवाल यह है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष भले ही मणिपुर जैसे शर्मनाक वाक्यों और सामाजिक असुरक्षा के मुद्दे पर राजनीति कर रहे हो। मणिपुर की जातीय हिंसा और महिलाओं पर अत्याचार की पराकाष्ठा पर सरकार की संवेदनहीनता को पूरा देश देख रहा है। सत्ता पक्ष के नेताओं द्वारा कांग्रेस को यह कहकर चुप कराने की कोशिशें की जा रही है कि उसके शासन काल में भी मणिपुर में ऐसा ही होता रहा है। कांग्रेस को उसे याद रखने की जरूरत है, जैसी बातें उसकी संवेदनहीनता को ही दर्शाती हैं। आज अगर जरूरत है तो इस बात की है कि मणिपुर में किस तरह से शांति बहाल हो और लोगों का शासन—प्रशासन में भरोसा कायम किया जाए? महीनों से राहत शिविरों में रह रहे लोग अपने घरों में लौट सके? जिसने अपने इस हिंसा के शिकार हुए लोगों को देखा है उनके दुख दर्द को कैसे बांटा जाए? जो बेघर हो गए हैं, उनके रहने और आजीविका की क्या व्यवस्था हो। लेकिन इन सब सवालों पर कहीं भी कोई ठोस पहल नहीं की जा रही है। इस बारे में सिर्फ बयान बाजी ही की जा रही है। अभी विपक्षी दलों के नेताओं ने मणिपुर का दौरा किया और वापस लौट कर कहा कि मणिपुर कराह रहा है? निसंदेह मणिपुर में जो भी घटित हुआ वह देश के लोकतंत्र और संविधान पर गंभीर सवाल खड़े करने वाला है इस तरह की अराजकता स्थिति में कोई समाज और राष्ट्र सुरक्षित महसूस नहीं कर सकता है।