ऐसा लगता है कि अब राजनीतिक दलों के लिए महंगाई कोई सामाजिक समस्या और राजनीतिक मुद्दा नहीं रह गया है। वह वक्त अब गुजरे कल की बात हो गया जब अखबारों में ऐसे समाचार छपते थे कि प्रधानमंत्री के सामूहिक भोज में सलाद से प्याज गायब। और प्याज की बढ़ती कीमतों के कारण किसी राजनीतिक दल को जनता सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा देती थी। अब भले ही किसी आम उपभोग की वस्तु की कीमत कितनी भी ऊपर चली जाए न आम जनता पर इसका कोई प्रभाव दिखाई देता है और न चौक—चौराहों पर इस बात की कोई चर्चा होती है। लोग जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है किसी वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसे खरीदना बंद कर देते हैं और नेता तथा अमीर लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि टमाटर अगर 100 रूपये किलो है तो क्यों है? दरअसल महंगाई उस गरीब तबके का मुद्दा है जिसकी आय न्यूनतम स्तर पर है। जो सिर्फ 10—20 रुपए किलो का ही टमाटर खरीद सकता है वह भी सिर्फ कभी—कभार एक पाव या आधा किलो। भले ही देश की एक तिहाई आबादी अभी भी इसी श्रेणी में आती हो लेकिन इस महंगाई से उसका ही जीवन सर्वाधिक प्रभावित होता है। टमाटर खाना छोड़ना इस आबादी के लिए कोई मुश्किल की बात नहीं है लेकिन दाल, आटा, चावल और तेल मसाले खाना छोड़ना तो उसके लिए भी असंभव है। इन दिनों सिर्फ टमाटर ही 100 रूपये किलो नहीं मिल रहा है बाजार में अन्य सीजन की सब्जियों के दाम भी कम नहीं है। खास बात यह है कि अगर सब्जियों के दाम अधिक हैं इसलिए दाल रोटी खाकर भी तो इन गरीबों का गुजारा संभव नहीं है। क्योंकि दालों के भाव जो पहले से ही आसमान छू रहे थे बीते 1 सप्ताह में और भी अधिक ऊपर जा चुके हैं दालों की कीमतों में औसतन 20 से 25 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है वहीं आटा चावल व खाघ तेलों में भी 5 से 10 फीसदी का इजाफा हो गया है। वर्तमान समय में बाजार में सवा 100 रूपये प्रति किलो से नीचे नहीं है जबकि अरहर की दाल तो 160 रूपये किलो तक मिल रही है। पेट्रोल—डीजल की कीमतें जो सालों से 100 रूपये प्रति लीटर के आसपास चल रही है वह अब कभी नीचे आएगी इसकी संभावना दूर—दूर तक भी दिखाई नहीं दे रही है। रसोई गैस सिलेंडर 11 सौ रुपए से ऊपर पहुंच चुका है। गरीब आदमी अब मुट्ठी में पैसे लेकर बाजार में इधर उधर भटक रहा है कि शायद कहीं कोई उसके जरूरत का सामान कुछ सस्ता मिल जाए। बात अगर मसालों की की जाए तो बीते दो—चार सप्ताह में जीरा जो 600 रूपये किलो था अब बढ़कर 800 रूपये किलो और मिर्च पाउडर जो 200 से 225 रूपये किलो था 325 व 350 रूपये प्रति किलो हो चुका है। एक समय में चुनाव से पूर्व अगर इस तरह की महंगाई होती थी तो सरकारों के पसीने छूट जाते थे। सत्ता में बैठे लोग किसी भी कीमत पर उन वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रण में रखने में अपनी पूरी ताकत झोंक देते थे जिसके दाम तेजी से बढ़ रहे होते थे क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता था कि महंगाई से परेशान जनता का गुस्सा उनकी राजनीति पर भारी पड़ सकता है। लेकिन अब सत्ताधारी दलों को भी इससे कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिख रहा है उन्होंने अन्य तमाम ऐसे मुद्दे खोज लिए हैं जो महंगाई के दर्द को भी बेअसर कर सकते हैं। क्योंकि बीते कुछ सालों में देश की राजनीति का चेहरा मोहरा ही नहीं बदल गया है बल्कि उसके तौर—तरीके भी बदल चुके हैं यही कारण है कि नेताओं की सोच अब जन समस्याओं के मुद्दो पर कुछ ऐसी हो गई है कि अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता। अब उन्हें जनता की कोई परवाह नहीं है भले ही यह उनकी सोच गलत सही और जनता जो कुछ भी करने का सामर्थ्य रखती है। इस महंगाई के मुद्दे पर क्या करती है? यह आने वाला समय ही बताएगा।