दंगों वाली राजनीति

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आज महावीर जयंती है। जिन्होंने देश ही नहीं समस्त विश्व को अहिंसा परमो धर्मः और जियो और जीने दो का सबक दुनिया को सिखाया। महावीर का संदेश था कि जब हम स्वयं में सबको देखेंगे तभी हिंसा से बच सकेंगे। सवाल यह है कि आज वर्तमान के भारत में क्या हम बौद्ध और महावीर की बात करने वाले भारतवासी अपने चरित्र और आचरण में इन महान संतों के आदर्शों को जी भी रहे हैं या फिर सिर्फ उनकी बातें हमारे लिए दूसरों को उपदेश देने तक ही सीमित होकर रह गई है। अभी 3 दिन पूर्व की बात है जब रामनवमी के दिन भगवान श्री राम की शोभा यात्राओं के दौरान हुगली से हावड़ा तक और बिहार शरीफ से सासाराम तक दर्जनों स्थानों पर हिंसा, आगजनी और पथराव जैसी घटनाएं देखने को मिली और हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग एक दूसरे का घर जलाते और खून बहाते दिखे। बीते कल देश के गृहमंत्री बिहार की राजधानी पटना में थे जहां उन्होंने अपने एक बयान में कहा कि अगर 2025 में उनकी सरकार बनी तो दंगा करने वालों को उल्टा लटका देंगे। सवाल यह है कि क्या देश के गृह मंत्री द्वारा दंगाइयों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए बिहार में भाजपा की सरकार का होना जरूरी है। या पश्चिमी बंगाल में हो रही हिंसा व आगजनी का वह तमाशा चुपचाप इसलिए देख रहे हैं क्योंकि वहां तृण मूल कांग्रेस व ममता बनर्जी की सरकार है। बड़ी स्पष्ट बात है कि देश के किसी भी कोने में होने वाले सांप्रदायिक दंगे होते नहीं है बल्कि एक सुनियोजित ढंग से दंगे कराए जाते हैं। 2020 में ऐसे दंगे दिल्ली में भी हुए थे। आज अगर ममता बनर्जी द्वारा भाजपा पर पश्चिमी बंगाल में दंगे कराने का जो आरोप लगाया जा रहा है तो वह बेवजह नहीं है। यह बात किसी एक दल या नेता के परिपेक्ष में नहीं है बल्कि देश के तमाम राजनीतिक दलों व नेताओं के बारे में सच है वह जातिवाद, धर्म के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण कराने की कोशिश में इस तरह की घिनौनी राजनीति का खेल दशकों से खेलते चले आ रहे हैं। और सार्वजनिक मंचों से सर्व धर्म संभाव और महावीर तथा बौद्ध के आदर्शों पर चलने का आह्वान आम लोगों के सामने करते हैं। यह हैरान करने वाली बात है कि सनातनी संस्कृति में जिन सामाजिक त्यौहारों और पर्वों को आपसी भाईचारा बढ़ाने और सांप्रदायिक सौहार्द के लिए मनाया जाता था आज उन्हें रक्त रंजित किया जा रहा है। रामनवमी पर हुए दंगों की आग अभी भी बुझी नहीं है क्योंकि देश के नेता ही नहीं चाहते यह आग बुझे। अपने जहरीले बयानों से वह इस आग में घी डालने में लगे हुए हैं। जो लोग इसे 2024 के चुनाव की तैयारियों से अगर जोड़कर भी देख रहे हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है। प्रशासन की भूमिका का जहां तक सवाल है वह शासन के पिछलग्गू होने का रहता है। तंत्र अपनी कोई जिम्मेवारी या उत्तरा दायित्व अथवा कर्तव्य से मुक्त ही रहता है सरकार का जो भी फरमान होता है बस उसका पालन करना और पगार लेना ही उसका काम है। कहां आग लगी और कहंा खून खराबा हुआ उसकी बला से। इस तरह के दंगों के समय मूकदर्शक बनकर सिर्फ तमाशा देखना क्या तंत्र की नाकामी नहीं है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर प्रशासन चाहे तो किसी की भी मजाल नहीं हो सकती कि वह दंगा कर सके। देखना यह है कि बौद्ध और महावीर के इस देश में धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर लोगों को कब तक लड़ाया जाता रहेगा और वह लड़ते भी रहेंगें। इस देश का आम आदमी कब इतना समझदार हो सकेगा जब उसे कोई लड़ा नहीं सकेगा।

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