विकास के लिए विनाश

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आमतौर पर कहा जाता है कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ ठीक नहीं है प्रकृति के साथ अगर तुम छेड़छाड़ करोगे तो वह तुम्हें छोड़ेगी नहीं। लेकिन विकास के लिए प्रकृति के साथ की जा रही छेड़छाड़ अविराम जारी है। यहां यह भी कहना भी कदाचित अनुचित नहीं होगा कि इस छेड़छाड़ की इंतहा हो गई है। सालों से ग्लोबल वार्मिंग का अलार्म बज रहा है लेकिन विश्व का कोई राष्ट्र इसकी आवाज सुनने को तैयार नहीं है। पहाड़ों का सीना विकास के नाम पर छलनी किया जा रहा है नदियों से अवैध अंधाधुंध खनन हो रहा है और पेड़ों के कटान और जंगलों के सफाई की तो बात ही क्या करनी है। यहां हम उत्तराखंड में 2013 में केदारघाटी की प्राकृतिक आपदा की बात नहीं करना चाहते जिसमें हजारों की संख्या में लोग मारे गए थे। बीते कल राजधानी दून के सहस्त्रधारा क्षेत्र में देर शाम पहाड़ से मलवा आया और कई घर तबाह हो गए। इस आबादी के ऊपरी हिस्से में हो रहा निर्माण कार्य इसके लिए जिम्मेवार बताया जा रहा है। जिसे लोग अवैध बता रहे हैं। पृथक राज्य बनने के बाद राजधानी देहरादून की शक्ल सूरत पूरी तरह से बदल चुकी है पेड़ों का अंधाधुध कटान हुआ है वही नदी—नालों खालो व जंगलात की जमीन पर व्यापक स्तर पर कब्जे अवैध रूप से किए गए हैं। राज्य में आवागमन को बेहतर बनाने और कनेक्टिविटी के नाम पर जिस तरह ऑल वेदर रोड और कर्णप्रयाग ऋषिकेश रेल परियोजना के लिए पहाड़ों का सीना चीरा जा रहा है वह विकास है या विकास के लिए विनाश को आमंत्रण है यह अब चर्चा का विषय भी नहीं रह गया है। जिस राज्य ने जंगलों की सुरक्षा के लिए चिपको जैसे आंदोलन से दुनियाभर को संदेश दिया हो कि पर्यावरण और प्रकृति की सुरक्षा कितना बड़ा मुद्दा है वह अब बीते दिनों की बात हो चुकी है। अब आज का समय अपने उस विकास पर इतराने का समय है जिसमें हम कर्णप्रयाग रेलवे लाइन के 15 किलोमीटर लंबी सुरंग बनाने जा रहे हैं जो एशिया की सबसे लंबी रेलवे सुरंग होगी। ऑल वेदर रोड पर अभी कई लोग यह सवाल उठाते देखे जा सकते हैं कि इसके कारण पहाड़ों और वृक्षों का जो कटान हुआ है उससे तमाम तरह की मुश्किलें बढ़ी है। भूस्खलन, दर्जनों डेंजर जोन ऐसे बन चुके हैं कि जानलेवा साबित हो रहे हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का नतीजा है कि राजस्थान या जो रेगिस्तान बूंद बूंद के लिए तरसता था वहां बाढ़ के हालात हैं और जहां भरपूर बारिश होती थी वह एक बूंद भी पानी नहीं है। प्रकृति के संतुलन पर समाज और राष्ट्र का संतुलन निर्भर करता है। प्रकृति का संतुलन बिगाड़ कर धरती पर कोई भी सुरक्षित रह सकता है यह संभव ही नहीं है।

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