आम आदमी पर भारी जीएसटी

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भले ही जीएसटी कर चोरी रोकने और कर सुधार की दिशा में एक कारगर कदम रहा है और इससे केंद्र तथा राज्य सरकारों की आय में वृद्धि हुई हो लेकिन क्या कर प्रणाली का उद्देश्य सिर्फ सरकार की आय को बढ़ाना ही है या फिर आम आदमी की मुश्किलों को कम करना भी है। जीएसटी लागू करने के बाद सरकार और जीएसटी काउंसिल की सोच अगर यह है कि आम आदमी और व्यापारियों तथा व्यवसायियों को कैसे अधिक से अधिक निचोड़ा जाए तो इस प्रवृत्ति को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। अभी हाल ही में हुई जीएसटी काउंसिल की 47 वीं बैठक में लिए गए निर्णय जिसमें खाने—पीने की आटा, चावल, दही, पनीर जैसी तमाम वस्तुओं पर जो 5 फीसदी टैक्स लगाने का फैसला लिया गया है उसे कतई भी व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। कल शुरू हुए संसद के सत्र के पहले ही दिन इसके विरोध में भारी हंगामा हुआ। देश में बीते कल से जिन आम उपभोग की छोटी—छोटी वस्तुओं पर जिनकी हर किसी को हर रोज जरूरत पड़ती है 5 फीसदी जीएसटी लगा दिया गया है। यही नहीं 5000 तक अस्पताल के कमरे और 1000 तक के होटल के कमरे भी अब जीएसटी के दायरे में आ चुके हैं। एक तरफ केंद्र की सरकार सबका साथ सबका विकास की बात करती है। देश की आम जनता और गरीबों के संरक्षण की हिमायत करती है। कोरोना काल में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने का ढिंढोरा पीट रही है वहीं वह आटा—चावल और दूध—दही जैसी वस्तुओं जो इन गरीबों के उपयोग की वस्तुएं हैं उन पर टैक्स वसूली में नहीं हिचक रही है। क्या इसका आम आदमी की जेब पर प्रभाव नहीं पड़ेगा? निश्चित तौर पर सरकार का यह एक गरीब विरोधी कदम है। हास्यप्रद बात यह है कि सरकार टैक्स वसूली पर दलील देती है कि वह जो टैक्स लेती है उसे जनता के लिए ही खर्च किया जाता है अगर अच्छी सड़कों पर चलना है या अच्छी सड़कें चाहिए तो फिर टोल तो देना ही होगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह टोल वसूली सड़क निर्माण की लागत से भी 100 गुना अधिक होनी चाहिए। सरकार को अब आम आदमी भी परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में अपनी कमाई का 20 फीसदी टैक्स दे रहा है। जिसकी बदौलत सरकार टैक्स वसूली के नित नए रिकॉर्ड बना रही है और यह रिकॉर्ड अब 1.5 लाख करोड़ तक पहुंच गया है सवाल यह है कि सरकार आखिर चाहती क्या है? उसे कितना टैक्स चाहिए। एक सवाल यह है कि जब देश की 80 फीसदी जनता की टैक्स वहन करने की कोई क्षमता नहीं और वह रोज कुआं खोदकर अपनी प्यास बुझाने की जद्दोजहद में जुटी है तो क्या उस पर सरकार को ऐसा कोई बोझ लादना चाहिए कि उससे उसकी कमर ही टूट जाए। बढ़ती महंगाई से उसकी कमर पहले ही झुक चुकी है तो क्या सरकार ने इन गरीबों की कमर तोड़ने की कसम खा रखी है अच्छा हो कि सरकार इस टैक्स वृद्धि को गरीबों के हित में वापस ले।

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