स्पेस से लौटने पर अंतरिक्ष यात्रियों का ब्रेन और डीएनए पहले जैसा नहीं रहता!

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अंतरिक्ष का रेडिएशन करता है असर

नई दिल्ली । स्पेस ट्रैवल को लेकर नई-नई बातें आ रही हैं। स्पेस यात्रा अमेरिका या कनाडा जाने की तरह नहीं, कि दो-चार दिन नींद नहीं आएगी और फिर सब ठीक हो जाएगा। अंतरिक्ष यात्रियों का पूरा शरीर बदल जाता है। यहां तक कि उनका ब्रेन और डीएनए तक पहले जैसा नहीं रहता।
दिमाग पर अंतरिक्ष के असर को समझने के लिए कई सारी स्टडीज लगातार हो रही है। ऐसी ही एक स्टडी अमेरिका में हुई, जो साल की शुरुआत में फ्रंटिअर न्यूरल सर्किट में ‘ब्रेन्स इन स्पेस- इफेक्ट ऑफ स्पेसलाइट ऑन ह्यूमन ब्रेन’ नाम से छपी। अध्ययन के तहत ऐसे 12 एस्ट्रोनॉट्स को लिया गया, जो स्पेस पर 6 महीने से ज्यादा बिताकर लौटे थे। स्पेस पर जाने से पहले उनका ब्रेन इमेजिंग हुई और फिर इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन से लौटकर धरती पर फ्लाइट लेने से पहले उनका MRI हुआ। 10 दिन बार ये दोबारा हुआ। ये प्रक्रिया लगातार 7 महीनों तक चलती रही।
अंतरिक्ष में रहने का मस्तिष्क पर क्या असर होता है, ये समझने के लिए एक खास तकनीक तैयार हुई, जिसे नाम मिला ट्रैक्टोग्राफी। ये ब्रेन इमेजिंग टेक्नीक है, जो न्यूरॉन्स में हल्के से हल्के बदलाव को दिखाती है। स्टडी में कई हैरतअंगेज बातें दिखीं। जैसे स्पेस पर पहुंचने पर वहां की बेहद खतरनाक रेडिएशन से बचने के लिए ब्रेन अलग तरह से काम करने लगता है। इसे न्यूरोप्लासिसिटी कहते हैं।
ये दिमाग की वो क्षमता है, जो न्यूरॉन्स को क्लाइमेट या पर्यावरण में आए बदलाव के अनुसार काम करने के लिए प्रेरित करता है। लगभग 6 महीने भी वहां बिताने के बाद ब्रेन का ये सिस्टम कुछ इस तरह से री-वायर्ड हो जाता है कि धरती पर लौटना भी उसे बदल नहीं पाता। या बदलता भी होगा तो फिलहाल ये सामने नहीं आ सका है।
स्पेस की एक्सट्रीम कंडीशन्स के कारण दिमाग अलग तरह से व्यवहार करने लगता है। जैसे वहां शरीर का भार खत्म हो जाता है। इसपर कंट्रोल के लिए ब्रेन अलग संकेत देता है, जो एक या दो दिन नहीं, कई महीनों तक चलता है। ब्रेन की री-वायरिंग के लिए इतना समय काफी है।
धरती पर लौटने के बाद ऐसे स्पेस ट्रैवलर चलने, बैलेंस बनाने में मुश्किल झेलते हैं। मोटर के साथ-साथ उनकी कॉग्निटिव स्किल पर भी असर होता है। पाया गया कि ज्यादातर यात्री लंबे समय तक बोलने और लोगों से मिलने-जुलने में दिक्कत झेलते रहे। यहां तक कि लगभग सभी की आंखें काफी कमजोर हो गईं।
ये तो हुई ब्रेन की तकनीकी बात, लेकिन स्पेस की एक्सट्रीम कंडीशन का मनोवैज्ञानिक असर भी होता है। इसे समझने के लिए यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने मार्स 500 नाम से एक साइकोसोशल एक्सपेरिमेंट किया। साल 2007 से पांच सालों तक चले इस प्रयोग में दिखा कि स्पेस से लौटने के बाद लंबे समय तक लोग डिप्रेशन में रहते हैं। यहां तक कि हिंसक भी हो जाते हैं। ज्यादातर लोग अपने-आप से बात करने लगते हैं। लौटे हुए कई यात्रियों ने बताया कि वहां रहते हुए वे इतने आक्रामक हो गए कि स्पेस वीकल को तबाह करके सभी को खत्म कर देने की सोचा करते थे।
इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में कॉस्मिक किरणों पर ALTEA नाम से लगातार प्रयोग चल रहे हैं। अपोलो 11 मिशन के दौरान ये देखा गया कि कैसे कॉस्मिक रेज एस्ट्रोनॉट के हेलमेट को भी भेदकर उसपर अपना असर छोड़ती हैं। यही वजह है कि अंतरिक्ष यात्रियों को लगातार अजीब रोशनी दिखाई देती। ये कई तरह के शेप और रंग की हो सकती है। किसी को ये जिंदा इंसान की तरह दिखते, तो किसी को रोशनी से आवाजें भी आतीं। फिलहाल इसपर स्टडी चल ही रही है कि कॉस्मिक रेज किस तरह से ब्रेन पर स्थाई असर डालती हैं।
रेडिएशन का जिक्र निकला है तो बता दें कि अंतरिक्ष में हर समय बहुत खतरनाक रेडिएशन निकलती रहती हैं। इससे वहां का तापमान एक्सट्रीम पर रहता है, जो कभी +300 डिग्री फैरनहाइट भी हो सकता है तो कभी -200 भी। इंसानी शरीर पर इसके असर को लेकर नासा का स्पेस शटल प्रोग्राम लगातार रिसर्च कर रहा है। इसमें पाया गया कि स्पेस की हल्की रेडिएशन भी DNA में बदलाव ला देती है, जिससे कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का डर बढ़ जाता है। विकिरणों से न्यूरोजेनेसिस की प्रक्रिया में रुकावट आती है। इससे दिमाग में नई कोशिकाएं बननी बंद हो जाती हैं, जिससे याददाश्त जाने से लेकर न्यूरोसाइकेट्रिक बीमारियां की आशंका बढ़ जाती है।
शारीरिक बदलावों की बात करें तो स्पेस एनीमिया एक बड़ा डर है। अंतरिक्ष यात्रा से लौटे 14 लोगों पर ओटावा यूनिवर्सिटी ने स्टडी की और पाया कि उनके शरीर की लगभग 54 प्रतिशत रेड ब्लड सेल्स खत्म हो गई थीं। दरअसल स्पेस में रेडिएशन और जीरो ग्रैविटी कुछ ऐसी चीजें हैं, जो शरीर पर बहुत गहरा असर डालती हैं। यहां हर सेकंड लगभग 3 लाख रेड ब्लड सेल्स खत्म होती हैं, जबकि धरती पर ये दर 2 लाख ही है।
वापसी के बाद भी स्पेस ट्रैवलर्स में लाल रक्त कणिकाओं की कमी की भरपाई नहीं हो पाती। नेचर मेडिसिन में छपी स्टडी में ये अनुमान भी है कि स्पेस में होने वाला एनीमिया शायद धरती पर भी उन मरीजों में दिखता हो, जो चलने-फिरने से लाचार हों। बता दें कि रेड ब्लड सेल्स हमारे शरीर के लिए बहुत जरूरी हैं, जिनका काम पूरे शरीर में ऑक्सीजन की आपूर्ति करना है।

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