अक्टूबर माह के 30 दिनों में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में 23 बार हुई मूल्यवृद्धि हैरान करने वाली है। उससे भी अधिक हैरान करने वाली बात है सरकार की चुप्पी जो इस मुद्दे पर एक शब्द भी बोलने को तैयार नहीं है। सरकार की तरफ से जो बयान अब तक आए हैं उनमें सिर्फ सरकार यह कहकर इस मुद्दे पर अपना पल्ला झाड़ती दिखी है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें बढ़ रही हैं और तेल की कीमतें सरकार तय नहीं करती है तेल कंपनियां तय करती हैं। यह हास्यापद ही है चुनाव प्रचार के दौरान यह नेता अपनी जनसभाओं में जनता से क्यों पूछते हैं कि पेट्रोल 70 रूपये लीटर चाहिए या फिर 40 रूपये लीटर। अगर 40 चाहिए तो भाजपा को वोट दें। यह मजाक जनता के साथ क्यों? अगर इन नेताओं के हाथ में कुछ नहीं है और सब कुछ तेल कंपनियों के हाथ में है तो फिर यह शगुफे बाजी वोट के लिए नहीं तो और क्या है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सरकार के हाथ में कुछ नहीं है? सरकार के हाथ में अगर कुछ नहीं होता तो वह पेट्रोल और डीजल पर उसकी वास्तविक कीमत से डेढ़ गुना ज्यादा टैक्स नहीं वसूल कर रही होती। अभी बीते दिनों पेट्रोल डीजल को भी जीएसटी के दायरे में लाने की मांग उठी थी जिसे सरकार ने सिरे से नकार दिया था क्योंकि इसमें उसे भारी नुकसान हो रहा था कहां 136 प्रति टैक्स और कहां 28 प्रतिशत। यह नुकसान 4.27 करोड़ के आसपास बैठता है। क्या केंद्र और राज्यों की सरकारें इतना बड़ा राजस्व नुकसान उठाने को तैयार हो सकती हैं। केंद्र सरकार द्वारा इसी साल 6 मई को पेट्रोल और डीजल पर सड़क एवं आधारभूत संरचना सेस का 8रूपये प्रति लीटर में बढ़ाकर 18 रूपये किया गया था। सरकार का तुर्रा है कि आपको अच्छी सड़कें भी चाहिए और सुविधाएं भी तो टेक्स तो देना ही होगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या टेक्स न्याय संगत नहीं होना चाहिए। पर टैक्स निर्धारण मे आम जनता की समस्याओं व परेशानियों का ख्याल नहीं रखा जाना चाहिए? जिसे सत्ता में बैठे लोगों द्वारा सिरे से ही दरकिनार कर दिया गया है। अभी 4 महीने बाद पांच राज्यों के चुनाव होने वाले हैं। जिसमें यह महंगाई का मुद्दा भी एक अहम मुद्दा रहने वाला है। भले ही अभी तक सत्ता में बैठे लोगों ने इस पर चुप्पी साध रखी सही। लेकिन चुनाव से पूर्व केंद्र व उन पांच राज्यों की सरकारों द्वारा पेट्रोल डीजल के दामों में कमी किया जाना लाजमी है क्योंकि जनता का वोट लेने के लिए तो यह जरूरी होगा ही साथ ही यह डर भी होगा कि कहीं यह महंगाई उनसे सत्ता न छीन ले। यही है आज के दौर की राजनीति का सच यहां सिर्फ सत्ता के लिए राजनीति की जाती है जनता के लिए नहीं। यह अफसोस जनक है कि झूठे वायदे जिसे आप शगुफा कहते हैं। झूठा प्रचार जिसे आप मार्केटिंग कहते हैं। नकली चेहरे जिन्हें आप ब्रांडिंग कहते हैं। इसके सिवा और है वर्तमान की राजनीति। देश की 80 करोड आम आबादी अगर महंगाई से मरती है तो मरे उससे किसी को क्या लेना देना।