काश! घोषणा पत्र प्रतिज्ञा पत्र होते?

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उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस ने बीते कल 2022 के चुनाव के लिए जो घोषणा पत्र जारी किया गया है उसे पार्टी का प्रतिज्ञा पत्र कहा गया है। चुनावी घोषणा पत्रों का चलन कोई नया नहीं है यह उतना ही पुराना है जितनी पुरानी देश की संसदीय प्रणाली है। यह अलग बात है कि इस घोषणापत्र को राजनीतिक दल अपनी—अपनी योग्यताओं और भाषाई ज्ञान के अनुसार इसे एक से बढ़कर एक लोकलुभावन नाम देते रहे हैं कोई इसे दृष्टि पत्र तो कोई प्रतिज्ञा पत्र बताता रहा है लेकिन खास बात यह है कि यह घोषणा पत्र जो कभी चुनाव में मतदाताओं का रुझान बदलने की क्षमता रखते थे वह समय के साथ नेताओं के वक्तव्य और वायदों की तरह अपनी प्रासंगिकता और विश्वसनियता को खोते चले गए। अब आम जनता की सोच में इन घोषणा पत्र को झूठ का पुलिंदा ही समझा जाता है। लेकिन फिर भी इनका चलन जारी है एकमात्र बसपा ही ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो कभी अपना घोषणा पत्र जारी नहीं करती और उसकी सोच है कि वह कहने में नहीं करने में विश्वास रखती है। कांग्रेस के कल जारी किए गए प्रतिज्ञापत्र में जो लोकलुभावन वायदे किए गए हैं उनके माध्यम से प्रदेश की आधी आबादी कहे जाने वाली महिला वोटर और देश का भविष्य कहे जाने वाले हैं 33 फीसदी युवाओं पर सर्वाधिक फोकस किया गया है। जिसकी पृष्ठभूमि में महंगाई से निजात और बेरोजगारी से मुक्ति दिलाने का भरोसा दिलाया गया है। इसमें 4 लाख युवाओं को रोजगार तथा महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 40 फीसदी नियुक्ति को सर्वाेच्च प्राथमिकता पर रखा गया है। राज्य गठन से लेकर अब तक कांग्रेस ने 10 साल सत्ता का सुख भोगा है। सवाल यह है कि सत्ता में रहते हुए कांग्रेस ने उस सब बातों पर ध्यान क्यों नहीं दिया? बाद सिर्फ कांग्रेस की नहीं है। जिसने 2017 के चुनाव से पूर्व अपने दृष्टि पत्र में जो वायदे किए थे उसने उन्हें कितना पूरा किया है। कितने युवाओं को रोजगार दिया? इस सवाल का जवाब आज भाजपा के पास भी नहीं है सरकार बनने पर 100 दिन के अंदर लोकायुक्त का गठन करने का वायदा करने वाली भाजपा क्या 5 साल में लोकायुक्त का गठन कर सकी। बात सिर्फ राज्यों के स्तर तक सीमित नहीं है। 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने विदेशों में जमा देश के काले धन को वापस लाने का जो वायदा किया था और हर गरीब के खाते में 15 लाख डालने की बात कही थी क्या वह 7 साल बाद भी उस काले धन को वापस ला सकी? पीएम मोदी ने देश के युवाओं को हर साल 2 करोड़ नौकरी देने की जो बात कही थी क्या उन्होंने इसे पूरा किया? यह सच है कि यह राजनीतिक दल और नेता चुनावी दौर में जो बयान बाजी करते हैं जो वायदे चुनावी सभाओं में करते हैं या अपनी घोषणा पत्रों में करते हैं वह महज शगूफे बाजी और वोट बटोरने के लिए जनता को भ्रमित करने के प्रयास के सिवाय और कुछ नहीं होता है। काश राजनीतिक दलों के यह घोषणा पत्र वास्तव में उनके प्रतिज्ञापत्र होते या बन पाते तो आज देश और समाज में कोई समस्या शेष नहीं रही होती। काश कोई संवैधानिक व्यवस्था ऐसी होती जो इन घोषणा पत्रों के वायदों को पूरा करने की बाध्यता बन सकती? सही मायनों में इन घोषणा पत्रों और चुनावी सर्वेक्षणों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए जिससे देश की जनता इन घोषणा पत्रों के छलावे से बच सके। घोषणापत्र नहीं तो कम से कम यह मुफ्त की सौगातें बांटने वाले दलों व नेताओं पर प्रतिबंध के बारे में तो देश की न्यायपालिका को भी सोचने की जरूरत है।

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