भेदभाव वाले बजट पर हंगामा

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हर अति का अंत सुनिश्चित होता है। लगातार तीसरी बार सत्ता की बागडोर संभालने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी भाजपा नेता जिन्होंने बीते 10 सालों में हर संभव कोशिश की कि संसद को कैसे विपक्ष विहीन बनाया जाए और विपक्ष की किसी भी जायज से जायज बात को नहीं सुना जाए। उन्हें कदाचित भी उम्मीद नहीं होगी कि वक्त इतनी तेजी से पलट जाएगा कि विपक्ष इतना मजबूत होकर सामने बैठा होगा कि उसके तीखे सवालों का जवाब देना भी मुश्किल हो जाएगा। संसद के पहले सत्र और पहले ही भाषण में नेता विपक्ष और अन्य तमाम दलों के नेताओं ने यह बता दिया था कि अब सरकार मनमर्जी से नहीं जनमर्जी से चलेगी। नेता विपक्ष के पहले भाषण से लेकर बीते कल बजट पर चर्चा के दौरान विपक्ष के हंगामे और वॉक आउट से लेकर प्रदर्शन तक की तमाम घटनाओं से यह साफ हो गया है कि भाजपा सरकार अब एक भी दिन चैन से नहीं रह सकेगी। वित्त मंत्री सीतारमण और उनके रणनीतिकारों ने इस बजट में भले ही कितनी भी कारीगरी दिखाई गई हो लेकिन विपक्ष में बैठे तेज तर्रार नेताओं की फौज ने इस बजट की बखिया उधेड़ कर रख दी है। राहुल गांधी से लेकर राघव चड्ढा और अखिलेश से लेकर अभिषेक बनर्जी तथा कुमारी श्ौलजा तक ने इस बजट को भेदभावपूर्ण और सत्ता बचाने वाला बजट सिद्ध करने में कोई कोर कसर नहीं रखी गई है। विपक्षी नेताओं की तैयारियों और तर्कों के सामने सत्ता पक्ष और वित्त मंत्री कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रहे हैं। सरकार के दो प्रमुख सहयोगी दल आंध्र प्रदेश के टीडीपी और बिहार के जदयू की जिन बैसाखियों पर यह वर्तमान सरकार टिकी है उन दोनों को समर्थन जारी रखने की शर्तों पर इन राज्यों को जो 74000 करोड़ का विशेष पैकेज दिया गया है क्या वह सरकार को 5 साल तक सत्ता में रहने की गारंटी दे सकता है? अगर भाजपा इस मुगालते में है तो उसका यह मुगालता एक न एक दिन दूर जरूर हो जाएगा शर्तों के आधार पर न तो कोई सरकार और न ही कोई परिवार बहुत लंबे समय तक अस्तित्व में रह सकता है। सबका साथ और सबका विकास तथा सबका विश्वास की बात करना अलग बात है लेकिन आपको यह सब अपने काम और व्यवहार में दिखाई देना चाहिए। जो मुद्दे इस बजट को लेकर विपक्ष द्वारा उठाए जा रहे हैं वह निराधार नहीं है। इस बजट में न तो देश के किसानों के लिए कुछ है न महिलाओं के लिए, थोड़ा बहुत कुछ करने की कोशिश की गई है वह सिर्फ युवाओं के लिए ही की गई है। अगर विपक्ष के सवालों में दम नहीं होता तो सत्ता में बैठे भाजपा के नेताओं में कोई बेचैनी नहीं होती लेकिन चिंता उनके खेमे में भी साफ दिखाई दे रही है। ऐसा नहीं है कि बजट में भेदभाव का आरोप कोई नया है। पूर्व समय में इस तरह के आरोप लगाये जाते रहे हैं। सच यही है कि जिस राज्य के सांसद और नेता अपने हक के लिए आवाज नहीं उठा सकते या लड़ नहीं सकते उन्हें उपेक्षा ही हाथ लगती है। आज अगर संसद में तमाम दलों के नेता तर्कों के साथ सदन में अपनी उपेक्षा का आरोप लगा रहे हैं तो सरकार को और वित्त मंत्री को उनके सवालों का जवाब देना चाहिए। अगर सत्ता पक्ष ऐसा नहीं करता है तो यह साफ है कि विपक्ष को वह अब आगे भी हमलावर होने से रोक नहीं पाएगा। दस साल बाद ही सही भाजपा को विपक्ष और लोक ताकत का कम से कम यह एहसास तो हुआ है कि लोकतंत्र में सरकार कैसे चलती है और कैसे चलाई जाती है।

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