कावड़ यात्रा मार्गों पर किसी तरह का व्यवसाय करने वालों को अब अपनी पहचान सार्वजनिक करने के लिए जो सरकारी फरमान जारी किया गया है उसे लेकर फिर हिंदू—मुस्लिम की राजनीति चर्चाओं के केंद्र में आ गई है। दरअसल इस मुद्दे के बिना राज सत्ता का कालम पूरा होता ही नहीं है। अभी लोकसभा चुनावों में भी इस मुद्दे का भरपूर हवा देने की कोशिश की गई थी। जाति और धर्म यही तो मुद्दे हैं जो वोटो के ध्रुवीकरण में सबसे अधिक प्रभावी साबित होते रहे हैं। फिर भला इन्हें इतनी आसानी से कैसे छोड़ा जा सकता है। लोकसभा चुनावो में देश की जनता ने इन मुद्दों को नकार दिया था न ही अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का कोई असर चुनाव पर पड़ा। सामाजिक समानता और बेरोजगारी के मुद्दों के सामने मंडल और कमंडल की राजनीति जिस तरह से धराशाही होती दिखी उससे भाजपा के सारे समीकरण बिगड़ गए। वह न तो लोकसभा चुनाव के दौरान कोई नरेशन सेट कर सकी और न अब चुनावी नतीजों के बाद ऐसा कुछ कर पाने की स्थिति में दिखाई दे रही है। अभी कुछ राज्यों के उपचुनावो में भी जनता का वही रुख रहा है अभी आगे उत्तर प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर चुनाव होने वाले हैं वहीं तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं बीजेपी इन चुनाव से पूर्व एक ऐसा एजेंडा तलाश रही है जो उसकी राजनीतिक अवनीति को रोक सके। मोदी है तो मुमकिन है, का मैजिक भी अब काम नहीं कर रहा है। भाजपा के नीतिकार अपने उन्हीं घिसे पिटे फार्मूले और ऐजेंडों को धार देने में लगे हुए हैं जिनके दम पर भाजपा दो सांसदों से अपना सफर शुरू कर देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन सकी थी। लेकिन वह अब यह समझने को तैयार ही नहीं है कि देश की सामाजिक व आर्थिक स्थितियों के साथ राजनीतिक सरोकार भी बदल चुके हैं। अब 1980—2000 वाला वह दशक नहीं है कि जब आडवाणी की रथ यात्र ाव कल्याण सिंह के कार्यकाल जैसा कोई चमत्कार हो सके और भाजपा फर्श से अर्श तक का सफर पलक झपकते ही तय कर ले। न ही भाजपा के पास अब मोदी के बाद कोई अटल बिहारी वाजपेई जैसा विराट व्यत्तिQत्व वाला नेता दिखाई देता है जो बीते 10 सालों में बिगड़ चुके हालात को संभाल सके। भाजपा को हिंदुत्व और हिंदू—मुस्लिम की इस राजनीति से अब नुकसान के सिवाय कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। यूपी के इस फैसले पर विपक्ष क्या कह रहा है और आम आदमी की सोच क्या है। सत्ता में बैठी भाजपा और उसके सहयोगी दलों के नेताओं द्वारा जो कुछ कहा जा रहा है कम से कम उस पर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को गौर करने की जरूरत है। चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की पार्टी के नेता भी इस फैसले से सहमत नहीं है। वही चिराग पासवान और जयंत चौधरी भी इसे देश और समाज के हितों के खिलाफ बता रहे हैं। अखिलेश यादव का तो यहां तक कहना है कि देश की सर्वाेच्च अदालत को इस मुद्दे पर स्वत संज्ञान लेने की जरूरत है। अगर यह मुद्दा देश की सर्वाेच्च न्यायालय तक जाता है और अदालत अगर इसे गलत ठहराती है तब सरकार क्या करेगी यह सवाल अब लोगों द्वारा भी पूछा जा रहा है। वहीं अगर सरकार के सहयोगी दल इसे लेकर दबाव बनाते हैं तो तब केंद्र की मोदी सरकार का क्या होगा देश के सामने महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे अनेक समस्याएं हैं। अच्छा हो कि सरकार विवाद खड़े करने वाले मुद्दों की बजाय उनके समाधान पर फोकस करें।