मतदाताओं की उदासीनता

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लोकसभा चुनाव में पांच चरण का मतदान हो चुका है। इन पांच चरणों के मतदान प्रतिशत को लेकर भले ही देश का निर्वाचन आयोग स्पष्ट आंकड़े बता पाने में अक्षम दिखाई दे रहा हो लेकिन इस बार के चुनाव में न तो कोई लहर दिखाई दे रही है और न ही सत्ता विरोधी रुझान नजर आ रहा है अगर कुछ दिखाई दे रहा है तो वह मतदाताओं का अपने इस सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार को लेकर उदासीनता जरूर दिखाई दे रही है। कुल मिलाकर इस चुनाव में अब तक 5 से 6 फीसदी कम मतदान होने की बात कही जा रही है। खास बात यह है कि इस कम मतदान को लेकर एनडीए और इंडिया गठबंधन के नेताओं द्वारा अपने—अपने लिए फायदे का सौदा बताया जा रहा है। तमाम टीवी चैनलों और युटुयूबर भी इसे लेकर अपने—अपने अनुसार इसकी समीक्षाएं कर रहे हैं। अबकी बार किसकी सरकार और कौन बनेगा प्रधानमंत्री जैसे मुद्दों पर इन दिनों जमकर डिबेट हो रही है। हर चरण के मतदान के बाद इस बात की तो चर्चा हो ही रही है कि इस चरण में किसने मारी बाजी। लेकिन मतदान के गिरते प्रतिशत को लेकर कोई चर्चा नहीं हो रही है। यह हास्यास्पद ही है कि कम मतदान के कारणों में भीषण गर्मी को जिम्मेदार बताकर बात से पल्ला झाड़ा जा रहा है। लेकिन यह भी किसी के गले नहीं उतरने वाला है कि कल पांचवें चरण के मतदान में सबसे अधिक मतदान 73.49 प्रतिशत पश्चिम बंगाल में हुआ। जहां कई सीटों पर यह 80 फीसदी तक भी पहुंचा। क्या पश्चिम बंगाल में गर्मी नहीं थी। कल उत्तर प्रदेश में 58 फीसदी और बिहार में 56 फीसदी के करीब मतदान हुआ वही महाराष्ट्र में तो यह प्रतिशत और भी कम रहा जो 54—55 फीसदी ही बताया गया है। सवाल यह है कि मतदाताओं में इस उत्साहहीनता के पीछे क्या कारण है उत्तराखंड की बात करें तो यहां पहले ही चरण में सभी पांच सीटों के लिए मतदान हुआ था। उस समय तो इतनी गर्मी भी नहीं थी फिर भी मतदान में 5 से 6 फीसदी तक की कमी देखी गई। 2019 में सभी पांच सीटों पर भाजपा जीती थी और अभी भाजपा सभी पांच सीटों पर जीत का दावा कर रही है। मतदान अगर एक दो प्रतिशत भी ऊपर नीचे होता है तो उसका चुनाव परिणामों पर असर लाजमी होता है लेकिन इस चुनाव में इसे भी नकारा जा रहा है। बात अगर नागालैंड की की जाए तो यहां 6 जिलों में मतदान का पूर्ण बहिष्कार किया गया किसी एक भी बूथ पर एक भी मत नहीं डाला गया। चार करोड़ मतदाताओं ने अपने अधिकार का प्रयोग नहीं किया। उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में लोगों ने अपनी समस्याओं का समाधान न होने के कारण वोट नहीं डाले। लेकिन इस पर कहीं कोई भी चर्चा नहीं हो रही है। इस कम मतदान या घटे मतदान का किसे कितना नफा या नुकसान होगा किसकी कितनी सीटें कम होगी और किसकी कितनी सीटें बढ़ेगी इसकी सटीक जानकारी 4 जून को चुनाव परिणाम आने के बाद ही मिल सकेगी। लेकिन लोकतंत्र में मतदान के प्रतिशत का क्या महत्व है इसे नकारा नहीं जा सकता है। मतदान दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पन्ना प्रमुखों को समझा रहे थे कि उन्हें कैसे अपने बूथ तक कम से कम 75 फीसदी मतदाताओं को मतदान केंद्रो तक पहुंचाना है लेकिन लगता है कि भाजपा के कार्यकर्ता इस चुनाव में इस काम को ठीक से नहीं कर सके हैं। उत्तराखंड में 62 लाख मतदाताओं को वोट देने का संकल्प कराया गया लेकिन उसका कोई असर धरातल पर नहीं दिखा। आज अगर मतदाता घरों से मतदान के लिए कम संख्या में निकल रहे हैं या उनका रुझान कम हो रहा है तो यह लोकतंत्र के लिए चिंतनीय विषय है अगर चंद लोगों ने ही सरकार चुननी है तो फिर उस लोकतंत्र की कोई महत्व नहीं रह जाता है। लेकिन इस कम मतदान प्रतिशत के लिए राजनीतिक दल और उनके नेताओं की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार है। मतदाताओं की इस उत्साहीनता को बेवजह नहीं कहा जा सकता है।

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