धार्मिक उन्माद का रंग

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देवभूमि उत्तराखंड की राजनीति पर भी अब धार्मिक उन्माद का रंग चढ़ना ष्टाुरू हो गया है। बीते कल कांग्रेस प्रदेष्ठा अध्यक्ष करण माहरा द्वारा दिए गए बयान जिसमें उन्होंने कहा है कि अगर अवैध मजारो की जांच की बात होगी तो मठ मंदिर और अन्य धर्म स्थलों की भी जांच की मांग उठेगी इसलिए बेहतर यही है कि भाजपा ऐसे मुद्दों को न छेड़े जिनसे सांप्रदायिक माहौल खराब हो सकता है। उनके इस बयान पर पर्यटन मंत्री की प्रतिक्रिया आई है कि जांच उसकी होती है जिसके बारे में सरकार के पास कोई ष्ठिाकायत आती है। बात चाहे कोई मजार की हो या फिर मठ या मंदिर की। उन्होंने इस बात पर आपत्ति की है कि करन माहरा का यह कहना ठीक नहीं है कि अनेक मठ व मंदिर भी अवैध तरीके से बने है। धर्म और धार्मिक भावनाओं से जुड़ा कोई भी मुद्दा कितना संवेदनष्ठाील होता है इसे बताने की जरूरत नहीं है। अभी उत्तराखंड राज्य विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेसी खेमे से जो मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाने का ष्टागुफा उछाला गया था उसकी कीमत कांग्रेस को अपनी हार से चुकानी बड़ी इस बात को कांग्रेसी नेता भी मानते हैं। भले ही धर्म राजनीति का विज़य न हो लेकिन वोट का विज़य जरूर है, यही कारण है कि देष्ठा की राजनीति के मुद्दों से न तो जाति और धर्म को अलग रखा जा सकता है और न मठ—मंदिर और मस्जिद को अलग किया जा सकता है। बीते कल कानपुर में जो हिंसा और पथराव की घटना हुई उसके पीछे भी धर्म और आस्था का ही मुद्दा था। बात चाहे काष्ठाी की हो या अयोध्या और मथुरा की अथवा ताजमहल और कुतुब मीनार की हो या फिर ज्ञानवापी की। घूम फिर के धर्म और संप्रदाय या जाति से जुड़े यह तमाम मुद्दे वोट से ही जाकर जुड़ते हैं। राजनीतिक दलों की भीड़ में इसे तुज़्टीकरण की राजनीति कहा जा रहा है। खास बात यह है कि सभी दल इस तुज़्टिकरण की राजनीति के आदी हैं और आरोप एक दूसरे पर लगाते हैं। इस तुज़्टीकरण की राजनीति के जरिए ही अपना एक वोट बैंक बनाया जाता है किसी का वोट बैंक हिंदू वोट बैंक है तो किसी का मुस्लिम। किसी का दलित वोट बैंक तो किसी का स्वर्ण वोट बैंक है। किसी का पंडित वोट बैंक है तो किसी का जाट वोट बैंक है। खास बात यह है कि हर एक वोट बैंक के धार्मिक स्थल अलग हैं और पूजा पद्धतियां भी अलग है। राजनीतिक दलों के बीच एक—दूसरे के वोट बैंक में सेंधमारी के जो प्रयास किए जाते हैं उसमें धर्म और धार्मिक स्थल तथा संप्रदायों का इस्तेमाल सबसे कारगर हथियार साबित होता है। आजादी के बाद से लेकर आज तक यही क्रम देष्ठा में जारी है। देव भूमि उत्तराखंड जैसे कुछ राज्य निजी तौर पर अब तक इससे दूर थे लेकिन अब धीरे—धीरे देवभूमि भी इसकी जद में आ रही है। जो चिंतनीय विज़य है। क्योंकि धार्मिक उन्माद अफीम की गोली जैसा ही है।

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