अनिवार्य आरक्षण चुनावी फंडा

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उत्तराखंड की धामी सरकार द्वारा आउटसोर्स भर्तियों में आरक्षण अनिवार्य रूप से लागू करने का जो फरमान जारी किया गया है वह इस बात की पुष्टि करता है कि बीते दो दशकों से सरकारी और अर्ध सरकारी विभागों में जो भी भर्तियां हुई वह चाहे किसी भर्ती एजेंसी या उपनल के माध्यम से हुई हो उनमें आरक्षण के नियमों की अनदेखी की गई है। आउटसोर्स माध्यम से होने वाली भर्तियों में आरक्षण नियमावली का पालन पहले भी अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया तब अब इसका अनुपालन के लिए यह ताजा फरमान सुनिश्चित कर सकेगा, यह पहला सवाल है दूसरा सवाल यह है कि सरकार में बैठे लोगों को यह समझने में दो दशक का समय क्यों लगा कि आउटसोर्स भर्तियों में आरक्षण नियमों का पालन नहीं हो रहा है। जबकि यह राज्य गठन के समय से ही है। आउटसोर्स भर्तियों में व्यापक स्तर पर धांधली होती आ रही है राज्य गठन के बाद जिस तरह से नौकरियों की लूटमार हुई है वह अब किसी से भी छिपा नहीं रहा है। सिर्फ आउटसोर्स भर्तियों में ही नहीं उत्तराखंड लोक सेवा आयोग और अधीनस्थ सेवा आयोग के माध्यम से होने वाली भर्तियों में नकल माफिया राज्य गठन से ही सक्रिय रहे हैं। भर्तियों के लिए होने वाली लिखित परीक्षाओं के पेपर लीक होते रहे हैं और इसका सिलसिला आयोगों को बंद करने और उन्हें बदले जाने के बाद भी नहीं थमा, इस बात को दर्शाता है कि भर्तियों में गड़बड़ी करने वालों का नेटवर्क कितना मजबूत है। बात चाहे उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग की हो या फिर लोक सेवा आयोग की। आयोगों के कर्मचारी से लेकर अधिकारियों तक की संलिप्ता के सबूत अब सामने आ गए हैं। जहां तक बात आउटसोर्स भर्तियों में धांधली की है तो वर्तमान धामी सरकार ने कुछ कर्मचारियों को बर्खास्त कर यह तो जरूर संदेश दिया है कि इस तरह की अनियमितताओं को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा लेकिन क्या वह पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल जिन्होंने अपने बहू और बेटे तक की नियम विरुद्ध भर्ती कराई है, के खिलाफ क्या कुछ किया या फिर कबीना मंत्री और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल के खिलाफ कुछ किया? ऐसे सवाल हमेशा ही पूछे जाते रहेंगे क्योंकि नौकरियों की लूटपाट के मात्र इस गंभीर मामले में अब तक जो भी कार्रवाई की गई है वह आधी अधूरी है। आउटसोर्स भर्तियों में आरक्षण नियमों का पालन कराने की जो याद अब सरकार को दो दशक बाद आई है उसके पीछे भी सरकार की मंशा सिर्फ धांधली रोकने का संदेश देने की है। क्योंकि नौकरियों में धांधली का यह मुद्दा ही चुनावी मुद्दा नहीं है ओबीसी आरक्षण का मुद्दा भी बड़ा चुनावी मुद्दा है। देश में जातिगत जनगणना का जो मामला तूल पकड़ता जा रहा है वह आरक्षण से जुड़ा हुआ ही मुद्दा है जिसे लेकर भाजपा पहले विपक्ष पर आरोप लगा रही थी कि वह जातियों के आधार पर देश को बांटने की कोशिश कर रही है लेकिन अब भाजपा के नेता भी इसके राजनीतिक नुकसान की संभावना को भांपकर देश में जातीय मतगणना का न सिर्फ समर्थन कर रहे हैं अपितु अपनी चुनावी सभा में जातीय मतगणना कराने का वायदा भी कर रहे हैं। उत्तराखंड सरकार अगर आउटसोर्स भर्तियों में आरक्षण को अनिवार्य करने की व्यवस्था कर रही है तो इसके पीछे चुनावी नफा नुकसान ही अहम कारण है ऐसा नहीं होता तो इस पर बहुत पहले ध्यान दिया गया होता।

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