असमय, बेसुरा राग

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उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस की अंर्तकलह भले ही कोई नई बात न सही, किंतु वर्तमान समय में जो आपसी असहमति और खींचतान का ताजा मामला सामने आया है वह ऐसे समय में आया है जब प्रदेश चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। 16 दिसंबर को राहुल गांधी की देहरादून रैली के बाद ऐसा लगने लगा था कि प्रदेश में कांग्रेसी नेता पिछली तमाम बातों को भुलाकर पूरी ताकत और एकजुटता के साथ चुनाव मैदान में जा रहे हैं। अभी हाल ही में सामने आए चुनावी सर्वेक्षण भी यही संकेत दे रहे थे कि कांग्रेस का पलड़ा भारी है। लेकिन बीते कल हरीश रावत के एक ट्यूट ने कांग्रेसी अंर्तकलह को फिर से हवा दे दी है। हरीश जैसे अनुभवी नेता ने अपनी अंतर पीड़ा को जिस तरह अभिव्यक्त किया है वह भले ही सही हो लेकिन उनके तरीके और अभिव्यक्ति के समय को कतई भी ठीक नहीं माना जा सकता है। अगर अपनी आपबीती को इस तरह सार्वजनिक करके या फिर अपने समर्थकों से अपने पक्ष में बयान बाजी करा कर वह किसी तरह की प्रेशर पॉलिटिक्स कर रहे हैं तो इसका मतलब है कि वह खुद ही कांग्रेस के लिए समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। हरीश रावत को इस समय ऐसी दार्शनिकता कि जरूरत नहीं थी अगर उनकी कोई अति गंभीर समस्या भी थी तो उन्हें इसे पार्टी फोरम में ही रखना चाहिए था। यह तो सभी जानते हैं कि वह 6 माह से अपने चेहरे पर चुनाव लड़ने या खुद को सीएम का चेहरा घोषित कराने के प्रयासों में जुटे हैं। लेकिन जब पार्टी फोरम पर यह तय किया जा चुका है कि चुनाव से पूर्व ऐसा नहीं किया जाएगा पार्टी, सामूहिक नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगी फिर इस तरह का दबाव या कोशिश क्यों? जहां तक संगठन के कुछ लोगों द्वारा असहयोग की बात है वहां मतभेद और मनभेद तो हमेशा रहे हैं और रहेंगे। दरअसल यह लड़ाई अहम और वर्चस्व की लड़ाई है जो पार्टी के चुनाव प्रचार से लेकर टिकटों के बंटवारे तक हर स्तर पर आपको दिखाई देगी ही। इस लड़ाई को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता है इस सत्य को हरीश रावत से लेकर हर एक कार्यकर्ता तक बखूबी जानता और समझता है। हरीश रावत भी इस बात को जानते हैं कि वह अकेले तो कुछ नहीं कर सकते हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव के अनुभव को उन्हें नहीं भूलना चाहिए। जब वह मुख्यमंत्री भी थे और चुनाव भी उन्हीं के चेहरे पर लड़ा गया था कांग्रेस की क्या गति हुई और उनकी खुद की भी क्या स्थिति रही थी? वह सबसे बड़े और सबसे योग्य नेता हैं तो सबसे अधिक मेहनत त्याग और तपस्या भी उन्हीं करनी चाहिए। पार्टी को एकजुट रखना उनका भी दायित्व है। अच्छा होता कि वह 2022 का चुनाव खुद न लड़कर पार्टी को चुनाव लड़ाते और जीताते भी। और अगर पार्टी फिर भी उन्हें नेतृत्व का मौका नहीं देती तो खुद ही किसी अल्पसंख्यक या महिला को सीएम की कुर्सी पर बैठने के लिए भी आमंत्रित करते। वह जिस संन्यास की बात अपने ट्वीट में कर रहे हैं उस सन्यास का इससे बेहतरीन तरीका भला और क्या हो सकता था? खैर इस अंर्तकलह और विवाद से क्या हासिल होना है आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन यह स्थिति न कांग्रेस के लिए बेहतर है और न स्वयं हरीश रावत के लिए।

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