अब मतदाताओं के इम्तहान की बारी

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चिंतन—मंथन फिर मतदान
पहले मतदान, फिर जलपान

देहरादून। उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2022 का प्रचार कोलाहल थम चुका है। राजनीतिक दलों के नेताओं को जो कुछ कहना था वह कह चुके हैं और धामी सरकार को जो कुछ करना था वह भी कर चुकी है। अब मतदाताओं के इम्तहान की बारी है कल प्रदेश की आम जनता को इस प्रश्न के सवाल पर अपनी राय देनी है कि वह किस दल और किस नेता को बेहतर समझती है और किस पर वह भरोसा जगाती है, वह सबसे बेहतर साबित होगा?
भले ही आमतौर पर लोग राजनीति को मुश्किल टास्क मानते हो लेकिन हर एक मतदाता के लिए यह सवाल इसलिए और अधिक मुश्किल हो जाता है क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान सभी नेता और राजनीतिक दल स्वयं को दूसरे से बेहतर और दूसरों को कंडम साबित करने के लिए एक ऐसा झूठ और भ्रम फैलाने का काम करते हैं कि सच को समझ पाना और भी मुश्किल हो जाता है। चुनाव प्रचार में ऐसा कुछ भी नहीं होता है जिसे सच कहा जा सके वह या तो जुमलेबाजी होती है या फिर ऐसा झूठ जिसे बार—बार दोहरा कर सच साबित करने की कोशिश की जाती है।
किसी भी चुनाव में जनहित और सामाजिक सरोकार के मुद्दे या तो नाम मात्र के होते हैं या होते भी हैं तो वह चुनाव प्रचार से मतदान होने की तारीख आते—आते गुम हो जाते हैं और अगर कानों में कुछ शेष बसता है तो वह सिर्फ शोरगुल ही होता है। नतीजा यह होता है कि भ्रमित मतदाता यह निर्णय नहीं ले पाता है कि किसे वोट दें तब ऐसे में या तो वह मतदान करने जाता ही नहीं और अगर चला भी जाए तो नोटा का बटन दबाकर अपने मतदान की औपचारिकता को पूरा करता दिखता है। आजादी के 75 साल और जिसे हमारे नेता अमृत काल बता रहे हैं, में भी अगर तमाम कोशिशों के बाद आधी आबादी ही अपने मताधिकार का प्रयोग कर रही है तो यह किसी पूरे लोकतंत्र नहीं आधे अधूरे लोकतंत्र की ही मिसाल है। जिस पर चिंतन की जरूरत है क्योंकि मतदान का प्रतिशत 50—60 फीसदी से ऊपर नहीं होता है। जिन समस्याओं का समाधान करने के वायदे हर बार व चुनाव में नेता और राजनीतिक दलों द्वारा किए जाते हैं उनका समाधान बीते छह सात दशक में भी क्यों नहीं हो सके है? क्यों वह आज समस्याएं वैसी की वैसी ही बनी हुई है? देश का मजदूर, किसान और गरीब क्यों आज भी दीन हीन जीवन जीने पर विवश है? जबकि नेताओं की संपत्तियां दिन दुनी, रात चौगुनी की वृद्धि दर से बढ़ती रही हैं। क्यों आज तक देश से बेरोजगारी और भ्रष्टाचार का सफाया नहीं हो सका है? क्यों देश के हर चुनाव में आस्था, धर्म, जाति और सांप्रदायिकता ही सबसे प्रभावी मुद्दे बनकर रह जाते हैं? देश के सामने ऐसे सवालों का अंबार लगा हुआ है। देश को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की इस बदहाली से कब और कैसे मुक्ति मिलेगी? सामाजिक समानता और न्याय की बात तो जैसे सिर्फ किताबी शब्द ही बनकर रह गए हैं। कल दूसरे दौर के मतदान के साथ सूबे के लोगों को इन कठिन सवालों का जवाब ढूंढना पड़ेगा? उत्तराखंड की जनता इस परीक्षा में कितनी पास हो पाती है इसका पता तो 10 मार्च को ही चल सकेगा लेकिन मतदान से पहले मंथन जरूर करें, जिससे आपका वोट एक ईमानदार, कर्मठ और जुझारू व्यक्ति को सत्ता तक पहुंचाने में सहायक बन सके।

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