भारत देश का लोकतंत्र भले ही दुनिया का सबसे पुराना और मजबूत लोकतंत्र कहा जाता हो लेकिन यह लोकतंत्र अपनी बहुआयामी संस्कृति के कारण अद्भुत और अत्यंत ही अनूठा भी है। क्योंकि इस देश के लोगों के लिए न तो कोई राष्ट्रीय मुद्दा महत्व रखता है और न कोई सामाजिक मुद्दा ऐसा होता है कि जिसके आधार पर मतदाता यह निश्चित करते हो कि उन्हें वोट किसे देना है। डिजिटल इंडिया में तो अब यह और अधिक जटिल हो गया है। जाति धर्म, क्षेत्रवाद और आस्था के मुद्दे हमेशा ही इस देश की राजनीति पर इसलिए भी हावी रहे हैं क्योंकि लोग भावनाओं में बहकर इसका फैसला लेते हैं कि उन्हें किसे वोट देना है। अब तक इस देश के नेता और राजनीतिक दल भी इतने परिपक्व हो चुके हैं कि वह मतदाताओं की कमजोर नसों को आसानी से पकड़ लेते हैं और असल मुद्दों से आसानी से जनता का ध्यान भटका कर कृत्रिम मुद्दों के सहारे वोट बटोरने और सत्ता में पहुंचने में कामयाब हो जाते हैं। 1970 के दशक में कांग्रेस का गरीबी मिटाओ कांग्रेस लाओ के नारे से लेकर 2010 के दशक तक जब भाजपा ने अच्छे दिन लाने का वायदा किया था इसका एक उदाहरण है। देश के लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं की आजादी के इस अमृत काल तक देश में भयंकर सामाजिक और आर्थिक असंतुलन की जो खाई पैदा हो चुकी है उसके पीछे क्या कारण है। यह बात किसी को भी अटपटी लग सकती है लेकिन सच यही है कि हमने कभी भी सही सरकार चुनने में गलती की है। 2024 का वर्तमान चुनाव भी पिछले चुनावों से कुछ अलग हटकर नहीं हो रहा है। सोशल मीडिया पर आने वाले तमाम सर्वे जनता को दिशा भ्रमित कर रहे हैं कोई एनडीए को 400 पार भेज रहा है तो कोई इंडिया गठबंधन को 400 पार ले जा रहा है। अगर चुनावी मुद्दों की बात करें तो उसमें भ्रष्टाचार पर वार और भ्रष्टाचारियों को जेल भेजने से लेकर विकसित भारत तक की बात शामिल है। राम मंदिर निर्माण और सनातन तथा हिंदू राष्ट्र की बात इन मुद्दों में शामिल है। लेकिन जनता के मुद्दे इस चुनाव से भी गायब दिखाई दे रहे हैं। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) का सर्वे इस बात को बताता है कि देश के लोग सबसे ज्यादा अगर परेशान किसी बात से हैं तो वह बढ़ती महंगाई व बेरोजगारी है। इस सर्वे में 62 प्रतिशत लोगों ने बेरोजगारी व 71 प्रतिशत लोगों ने महंगाई को बड़ा मुद्दा माना है। लोग इन समस्याओं के लिए केंद्र व राज्यों की सरकारों को समान रूप से जिम्मेदार मानते हैं। इस सर्वे के अनुसार बीते 10 सालों में सिर्फ तीन फीसदी लोगों तक ही विकास पहुंचने की बात कही गई। गरीब, कमजोर और मध्यम वर्ग के लोगों की समस्याएं पहले से कई गुना अधिक बढ़ चुकी है उनके बचत की बात तो दूर जीवन को सामान्य तौर पर जी पाना भी मुश्किल हो रहा है लोग चाहते हैं कि देश का समावेशी विकास हो जिससे इस सामाजिक असंतुलन को कम किया जा सके। सर्वे का नतीजा यही बताता है कि आने वाली सरकार ने अगर ऐसा नहीं किया और सत्ता अर्थव्यवस्था पर केंद्रित नहीं रही तो देश की गरीब व मध्यवर्ग की आबादी का जीवन मुहाल हो जाएगा।