एक देश एक चुनाव की कवायत क्यों?

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जी हां! यही है नए दौर का नया भारत जहां अब सब कुछ संभव है। इसे भाजपा नेताओं की भाषा में आप यूं भी कह सकते हैं कि मोदी है तो मुमकिन है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले इस नए दौर के भारत में भले ही कुछ मुमकिन हुआ हो या न हुआ हो लेकिन देश की राजनीति का चाल—चरित्र और चेहरा जरूर बदल गया है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण हमें बीते 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन के दौरान देखने को मिला था जब पीएम इस बात की घोषणा कर रहे थे कि उनके तीसरे कार्यकाल में देश विकसित देशों की सूची में शुमार हो जाएगा। शायद ऐसी मिसाल इस देश के इतिहास में इससे पहले कभी नहीं देखी गई है जब चुनाव से पूर्व ही किसी नेता ने स्वयं को देश का अगला पीएम घोषित कर दिया हो वह भी अपने राष्ट्रीय संबोधन में। प्रधानमंत्री मोदी का अब तक का कार्यकाल राजनीतिक शगुफे बाजी के कार्यकाल के रूप में हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि इस दौरान अच्छे दिन आने वाले हैं, हम 100 दिन में विदेश में जमा काला धन वापस लाने वाले हैं। हर गरीब के खाते में 10—10 लाख डाले जाएंगे। हर साल 2 करोड लोगों को नौकरियां दी जाएगी आदि—आदि और न जाने क्या—क्या। आत्मनिर्भर भारत, किसानों की आय दो गुना करने से लेकर एक राष्ट्र एक चुनाव, एक देश एक कानून और इससे भी आगे जाकर न जाने क्या—क्या नारे और स्लोगन भाजपा के नीतिकार गढ़ कर एक अनूठा रिकॉर्ड बना चुके हैं। इन दिनों आम चुनाव से पहले भाजपा नेताओं द्वारा एक देश एक चुनाव की मुहिम को जिस तरह हवा दी गई है उसे पर जिस तेजी से काम शुरू किया गया है उसके पीछे भाजपा और प्रधानमंत्री की क्या मंशा है इसे कोई भी राजनीति पंडित नहीं समझ सकता है लेकिन इस विचार को आगे बढ़ाते हुए जिस तरह पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में समिति का गठन किया गया है और नेता विपक्ष अधीर रंजन ने इसकी सदस्यता स्वीकार करने से यह कह कर इनकार किया गया कि जिसके नतीजे पहले से ही तय हो उन्हें ऐसी किसी समिति की सदस्यता स्वीकार्य नहीं है। उनकी इस बात से साफ समझा जा सकता है कि मोदी सरकार चुनाव से पूर्व देश में एक साथ चुनावी व्यवस्था का मन बना चुकी है। वही एक देश और एक कानून यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) लागू करने पर भी उसे कोई रोक नहीं सकता है क्योंकि केंद्र में भाजपा की एक ऐसी बड़े बहुमत वाली सरकार है जो चाहे कर सकती है। अगर देश में एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था लागू होती है तो ऐसी स्थिति में छोटे और क्षेत्रीय दलों की भूमिका लगभग समाप्त हो जाएगी वहीं भाजपा जैसे बड़े राष्ट्रीय दलों का कोई भी आसानी से मुकाबला करने वाला नहीं बचेगा। अभी बीते कुछ सालों में केंद्र सरकार व उसके नेताओं को विपक्ष की मौजूदगी और किसी भी बड़े से बड़े आंदोलन को लेकर जिस तरह बेफिक्र देखा गया है उससे लोगों ने यह तक कहना शुरू कर दिया था क्या देश चीन और रूस की तरह तानाशाही की ओर बढ़ रहा है। भले ही लोगों की यह सोच 100 फीसदी सच न हो लेकिन राजनीति की एक भाषा सांकेतिक भी होती है जिसके आधार पर बहुत कुछ ऐसे संकेत भी मिलते हैं कि कोई देश और उसकी राजनीति किस दिशा और दशा में जा रही है। यह आने वाले 2024 के चुनाव के बाद बहुत कुछ साफ होने वाला है।

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