उत्तराखंड विधानसभा का वर्तमान चुनाव अब तक के तमाम चुनावों से अलग हटकर है। नामांकन पत्र भरने के आखरी तारीख से एक दिन पूर्व तक जिस तरह उठापटक देखने को मिली वैसा पहले कभी नहीं हुआ। 5 साल तक एक दूसरे पर आरोप—प्रत्यारोप लगाने वाले तमाम नेता टिकट के लिए दलबदल करने में कोई संकोच करते नहीं दिखे। भाजपा और कांग्रेस के इन नेताओं की रातों ंरात निष्ठा बदल गई और दोनों ही दलों ने विरोधी दलों के इन नेताओं का बाहें पसार कर स्वागत ही नहीं किया अपितु अपने दल के विधायक और नेताओं को दरकिनार करते हुए उन्हें चंद घंटों और मिनटों में अपना अधिकृत पार्टी प्रत्याशी की घोषित कर दिया गया। इस तरह की रणनीति अब तक सिर्फ भाजपा द्वारा ही अपनाई जाती थी लेकिन इस बार उत्तराखंड में कांग्रेस ने इस रण में भाजपा को भी पीछे छोड़ दिया। किशोर उपाध्याय व सरिता आर्य सहित चार कांग्रेसी नेता जहां भाजपा में गए वहीं भाजपा के यशपाल आर्य, संजीव आर्य व धन सिंह नेगी सहित पांच मंत्री, विधायक और नेताओं को कांग्रेस ने समेट लिया। अपनों की उपेक्षा और दूसरों को सम्मान के मुद्दे पर भले ही भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों में भारी बगावत देखी जा रही है लेकिन दोनों ही दल फिलहाल इस पर गौर करने को तैयार नहीं है। यह बगावत क्या गुल खिलाएगी? इसका पता भले ही 10 मार्च को चुनाव रिजल्ट आने पर ही चल सकेगा लेकिन इसका असर इस चुनाव में पड़ना तय माना जा रहा है। वर्तमान चुनाव के बारे में दूसरी सबसे अहम बात यह है कि टिकट के लिए जिस तरह की मारामारी इस बार देखी गई वह भी अभूतपूर्व रही है। नामांकन की अंतिम तिथि तक भाजपा व कांग्रेस अपने प्रत्याशियों के नाम में फेरबदल करने व रणनीति कारणों से सूचियों को लंबित रखने पर विवश देखे गए। भाजपा और कांग्रेस को टिहरी और डोईवाला की सीटों पर प्रत्याशी तय करने में नामांकन की अंतिम तिथि तक जाना पड़ा। कांग्रेस की दूसरी सूची आने के बाद तो ऐसा कोहराम मचा की कांग्रेस के अपने चुनाव प्रभारी और कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा माने जाने वाले हरीश रावत सहित पांच प्रत्याशियों की विधानसभा सीटों को बदलना पड़ा, वहीं कई घोषित प्रत्याशियों को ड्रोप करना पड़ा। जिन्हे मनाना अब कांग्रेस को भारी पड़ रहा है। दरअसल 2022 का यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस के लिए अति महत्व का इसलिए भी हो चुका है क्योंकि भाजपा के सामने अपनी प्रतिष्ठा बचाने की चुनौती है क्योंकि वह 2017 में रिकॉर्ड 57 सीटों पर जीत व प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में पहुंची थी तथा डबल इंजन वाली सरकार कहीं जाती थी वहीं कांग्रेस जो दहाई भर विधायकों के साथ अपने न्यूनतम स्तर पर रही थी, के सामने अपने अस्तित्व की सुरक्षा का सवाल है। हरीश रावत जिनके मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस की यह दुर्दशा हुई और जो अब अपनी अंतिम सियासी पारी खेल रहे हैं इस दाग के साथ अपनी राजनीति से विदाई नहीं चाहते। उनकी तमन्ना है कि खेल उनके रहते बिगड़ा था तो उनके रहते ही संभल जाना चाहिए? भाजपा लगातार दूसरी बार सत्ता हासिल करने का इतिहास बनाने की कोशिश में है तो कांग्रेस व हरीश अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। बाजी किसके हाथ लगेगी अभी पता नहीं लेकिन टक्कर कड़ी होगी यह तय है।