सत्ता, सचिव पर सख्त और मंत्री पर मेहरबां क्यों ?

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निष्पक्ष जांच के दावों पर उठ रहे हैं सवाल
क्या जांच पूरी होने पर मंत्री से लिया जायेगा इस्तीफा

देहरादून। विधानसभा अध्यक्ष रितु खंडूरी ने विधानसभा में हुई बैक डोर भर्तियों पर तल्ख तेवर दिखाने और लोकतंत्र के मंदिर की गरिमा बनाये रखने तथा युवाओं के साथ कोई भी अन्याय न होने देने का भरोसा तो दिलाया है, लेकिन गंभीर आरोपों के दायरे में घिरे वित्त मंत्री के बारे में एक शब्द भी नहीं बोला जबकि विधानसभा सचिव को फोर्सफुली लीव पर भेजने और उनका दफ्तर सील करने के आदेश दे दिये गये। जो अभी इस जांच को संदेह के घेरे में खड़ा करता है। सवाल यह है कि अगर विधानसभा सचिव पद पर बने रहकर जांच को प्रभावित कर सकते थे तो वित्त मंत्री क्या मंत्री रहते हुए जांच को प्रभावित नहीं कर सकते हैं? क्या अपने मंत्री के खिलाफ कोई कठोर निर्णय इसलिए नहीं लिया गया है कि सरकार व भाजपा को पहले ही पता है कि जांच के बाद वह बेदाग साबित हो जायेंगे?
इस सच को कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों के नेता बखूबी जानते हैं कि अगर जांच निष्पक्ष तरीके से हुई तो न गोविंद सिंह कुंजवाल इससे बच सकते हैं और न ही वित्त मंत्री प्रेमचन्द्र अग्रवाल। कांग्रेस ने अब यह पक्का मन बना लिया है कि वह कुंजवाल का कतई भी बचाव नहीं करेगी। यही कारण है कि हरीश रावत से लेकर करन माहरा तक अब इस बात को कह रहे हैं, इसकी जांच निष्पक्षता से होनी चाहिए और दोषी चाहे किसी भी पार्टी का हो उसे सजा मिलनी ही चाहिए। कुंजवाल ने अगर विधानसभा अध्यक्ष के विशेषाधिकार का प्रयोग अपने बेटे और पुत्र वधू को नौकरी देने के लिए किया है तो उन्हें भला कौन दोषमुक्त मान सकता है। वही प्रेमचन्द्र अग्रवाल ने अगर भाजपा नेताओं व संघ के पदाधिकारियों को नौकरियां दी है जिसे वह स्वयं स्वीकार कर चुके हैं तो फिर यह कैसे कह सकते हैं कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है। राज्य में 2011 से पूर्व प्रकाश पंत, यशपाल आर्य और हरबंश कपूर के कार्यकाल में हुई 250 नियुक्तियों के बारे में भले ही यह कहा जा सकता है कि इसके लिए तब तक कोई नियमावली नहीं थी। इसके लिए किसी को गलत या सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन गोविंद सिंह कुंजवाल और प्रेमचन्द्र के कार्यकाल में इन नियुक्तियों के लिए नियमावली लागू की जा चुकी थी। कुंजवाल या प्रेमचन्द्र ने अगर इस नियमावली को ताक पर रखकर नेताओं और अपने सगे संबंधियों को नौकरियां दी है तो फिर भला इसे कैसे सही ठहराया जा सकता है। अगर सत्ता में बैठे लोग अपनी और पार्टी की साख बनाने के लिए जांच के नाम पर कोई लीपापोती करना चाहते हैं यह उनकी एक और बड़ी गलती होगी। क्योंकि रायता इतना फैल चुका है कि उसे लीपा पोता नहीं जा सकता है। भ्रष्टाचार के इस कैंसर का बड़ा आप्रेशन जरूरी हो गया है। भले ही कुछ मंत्री और नेताओं और अधिकारियों की बलि देनी पड़े सत्ता को इसमें उतनी दृढ़ता दिखानी ही पड़ेगी जितनी कही जा रही है।

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