राजनीति में यह कैसा खेला होवे?

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वर्तमान दौर की राजनीति की दशा और दिशा को समझना मुश्किल ही नहीं असंभव हो गया है। खबर है कि पूर्वांचल की राजनीति में अपना थोड़ा—बहुत दखल रखने वाले ओमप्रकाश राजभर बीते दिनों भाजपा नेता अमित शाह और धर्मेंद्र प्रधान से मिले। चर्चा है कि वह फिर भाजपा के साथ आना चाहते हैं। चुनाव के दौरान स्वामी प्रसाद मौर्य और राजभर दो ऐसे नेता थे जो भाजपा गठबंधन से नाता तोड़कर सपा के साथ आ गए थे। चुनावी मंचों से इन नेताओं ने भाजपा और उसके नेताओं तथा सरकार के खिलाफ जितना कुछ भला बुरा कहा उसे सुनकर हर किसी को यही लगा कि जैसे इनके साथ भाजपा ने इतना दुर्व्यवहार और अत्याचार किया है कि उससे दुखी होकर उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ा है। जब यह दलित और पिछड़े समाज के नेता सपा के साथ खड़े दिखे तो सपा नेताओं को यही लगा कि अब इनके आने से उसकी ताकत कई गुना बढ़ गई है और उन्हें चुनाव जीतने से कोई नहीं रोक पाएगा। लेकिन चुनावी नतीजों ने सपा का भ्रम तोड़ दिया वहीं राजभर और मौर्य जैसे नेताओं की भी गलतफहमी दूर कर दी। उन्होंने भी यही सोचा था कि भाजपा के साथ रहकर 5 साल सत्ता का मजा ले लिया अब सपा की सरकार के मजे लेते हैं। लेकिन उनका आकलन गलत साबित हो गया। अभी यूपी में नई सरकार का गठन भी नहीं हुआ है कि राजभर फिर भाजपा की शरण में पहुंच गए हैं। खबर है कि वह फिर सरकार का हिस्सा बनने वाले हैं। भाजपा ऐसे नेताओं को क्यों अपने साथ रखना चाहती है जिनके राजनीतिक चाल चरित्र को वह अच्छे से जानती और समझती है? यह सवाल किसी के मन में भी उठ सकता है लेकिन इस सवाल का जवाब है 2024 का लोकसभा चुनाव। भाजपा को राजभर जैसे नेताओं के जाने के बाद पूर्वांचल में जो नुकसान हुआ है वह भले ही इतना बड़ा न सही जो उसे सत्ता से बाहर धकेल सकता लेकिन नुकसान हुआ जरूर है। भाजपा नहीं चाहती कि वैसा ही नुकसान 2024 के चुनाव में भी उसे हो यही कारण है कि वह इतना कुछ होने के बाद भी उनको अपने साथ रखना चाहती है। मौर्य और राजभर जैसे नेताओं के राजनीति का भी उतना ही मतलब है। इससे आगे की बातों से उन्हें भी कुछ लेना देना नहीं है। यूपी में बीते एक दशक की राजनीति में चुनावी गठबंधनोंं का जो खेला हो रहा है उसने सपा—बसपा, कांग्रेस, राष्ट्रीय लोक दल सहित इन तमाम अन्य क्षेत्रीय दलों को कहीं का भी नहीं छोड़ा है। अगर हम अन्य दूसरे राज्यों की राजनीति की बात भी करे तो सभी जगह कमोबेश वैसे ही हालात हैं। दलबदल और बेमेल गठबंधनों तथा सत्ता के लिए जोड़—तोड़ की राजनीति ने सबसे ज्यादा नुकसान लोकतंत्र को पहुंचाया है। जनता जिसे सत्ता से दूर रखना चाहती है वह तमाम तरह के हथकंडे अपना कर सत्ता में जा बैठते हैं और जनता ठगी सी देखती रह जाती है कि उसने तो ऐसा जनादेश नहीं दिया। आज की राजनीति का सच भी यही है।

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