उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस के लिए 2022 का चुनाव करो या मरो वाला चुनाव है। 2017 के चुनाव में कांग्रेस का जो प्रदर्शन रहा था वह निम्नतम स्तर वाला था उसे इस चुनाव में सिर्फ 11 सीटें ही नहीं मिली थी अपितु उसका वोट प्रतिशत भी नीचे गिरा था। वहीं भाजपा ने इस चुनाव में रिकॉर्ड सीटें ही नहीं जीती थी, वोट प्रतिशत में भी एक ऐसा नया रिकॉर्ड बना डाला था जिसे अब भाजपा ही नहीं किसी भी दल के लिए तोड़ पाना बहुत मुश्किल काम होगा। भाजपा की इस बड़ी जीत और काग्रेस की इस बड़ी हार के पीछे कारण चाहे जो भी रहे हो लेकिन इसके लिए पूरी तरह से पूर्व सीएम हरीश रावत को जिम्मेवार ठहराया गया था, उनके ही शासन काल में कांग्रेस में बड़ा विभाजन भी हुआ और काग्रेस हर स्तर पर न्यूनतम स्तर पर खिसकती दिखी। हरीश रावत और कांग्रेस के लिए बीते 7 साल किसी डरावने दुःस्वप्न से कम नहीं रहे हैं। अपनी प्रतिष्ठा व मान—सम्मान को बचाने की इस लंबी लड़ाई में कांग्रेसी नेताओं ने वह सब देखा है जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी। पूर्व सीएम हरीश रावत जो अपने राजनीतिक सफर के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके हैं 2022 की इस लड़ाई को पूरी शिद्दत और साहस के साथ लड़ रहे हैं जिसके पीछे अहम कारण यही है कि वह राजनीति को अपनी नाकामियों के साथ अलविदा नहीं कहना चाहते हैं। वह अपनी और कांग्रेस की जीत तथा उसी मर्यादित स्थिति के साथ देखना चाहते हैं जैसा पूर्व समय में था। वह यह भी जानते हैं कि वक्त उन्हें शायद एक और मौका नहीं देगा क्योंकि अब वह उम्र के हिसाब से भी उस पड़ाव पर पहुंचने वाले हैं जब लोग वृद्ध नेताओं को मार्ग प्रदर्शक बनाकर किनारे कर दिया जाता है। इस विषय में खास बात यह है कि भाजपा की वर्तमान सरकार ने हरीश रावत और काग्रेस को भरपूर मौका दिया है। भाजपा की बंपर बहुमत वाली सूबे की सरकार का 5 साल में कोई बड़ा काम न करना और फिर दो—दो मुख्यमंत्रियों का बदला जाना तथा पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों के फैसले को पलटा जाना, जैसी घटनाओं के बीच कांग्रेस को अपने पैर जमाने और मजबूत बनने के अच्छे अवसर दिए गए। कांग्रेस इन अवसरों को कितना भुना सकी इसका पता आगामी 10 मार्च को ही चलेगा। लेकिन इस बात को न सिर्फ हरीश रावत बल्कि पार्टी के सभी अन्य नेता भी बखूबी समझते हैं कि इस चुनाव में अगर उनकी हार होती है तो इसके मायने क्या होंगे? भले ही हरीश रावत अभी अपनी जीत और सरकार बनाने के दावे के साथ कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र पर ईमानदारी से काम किया तो उसे अगले 20 साल भी कोई हिला नहीं सकेगा लेकिन अभी चुनाव परिणाम से पूर्व इन सभी बातों का कोई मतलब नहीं है। अपने आप को ही मुख्यमंत्री बनाए जाने जैसी उनकी ख्वाहिशों के भी अभी कोई मायने नहीं है। मायने सिर्फ इस बात के है कि 10 मार्च के बाद कांग्रेस का सूबे की राजनीति में क्या महत्व होगा और यह तय करेगा उसकी हार और जीत।