मूल्यहीन राजनीति का दौर

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कहा जाता है कि प्यार और राजनीति में सब कुछ जायज है। यह बात प्यार के मामले में कितनी सटीक और सही है यह तो हमें पता नहीं लेकिन हंा राजनीति के वर्तमान परिवेश में कुछ भी नाजायज और असंभव नहीं रहा है। एक दौर था जब हर एक राजनीतिक दल की अपनी एक राष्ट्रीय व सामाजिक विचारधारा होती थी और हर एक नेता की किसी भी मुद्दे पर एक स्पष्ट सोच। जिससे सहमति और असहमति के आधार पर जनता उन्हें अपना वोट देने का फैसला लेती थी लेकिन दलबदल और गठबंधन की राजनीति के दौर में राजनीति के धर्म और नैतिकता और मूल्यों के अब कोई भी मायने नहीं रह गए हैं। अब राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं रह गया है। नेताओं की निष्ठाएं, सोच और व्यवहार सब कुछ पलक झपकते ही बदलते हुए देखा जा सकता है। कब कौन सा नेता किस दल को छोड़कर किस दल में चला जाएगा और किस राज्य में कब दल बदल के चलते किसकी सरकार धराशाही हो जाएगी और किसकी सरकार बन जाएगी? कुछ भी असंभव नहीं रहा है। ऐसे में अगर आम जनता कितनी भी कोशिश कर ले और चाहे वह अपनी पसंद की सरकार गठन के लिए कितनी भी सूझबूझ से मतदान करने में दिखा लें वह एक अच्छी सरकार नहीं चुन सकती है। असमय दल बदल और बेमेल गठबंधनों ने देश की राजनीति का चेहरा मोहरा ही बदल कर रख दिया है। बीते दिनों पश्चिम बंगाल के चुनावों में हमने देखा था कि भाजपा के पक्ष में हवा बहती देख तमाम टीएमसी के नेता और कार्यकर्ता भाजपा के साथ चले गए थे लेकिन ममता बनर्जी की टीएमसी की सत्ता में वापसी होते ही यह नेता फिर भागते हुए और अपनी गलती स्वीकार करते हुए ममता बनर्जी की सरकार के साथ चले गए। इन दिनों जिन पांच राज्यों में चुनावी प्रक्रिया चल रही है उन तमाम राज्यों में जिस तरह से नेताओं का एक दल से दूसरे दल में आवागमन और जोड़—तोड़ के साथ टिकटों के लिए मारामारी मची है वहां यह समझ पाना भी आम आदमी के लिए मुश्किल हो चुका है कि कौन सा नेता कौन से दल में है और कौन सा दल किस दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहा है। कोई दल इस सियासी उठापटक से अछूता नहीं है। सभी दल और नेताओं का बस एक ही उद्देश्य रह गया है। कैसे टिकट पाना है और कैसे सत्ता में पहुंचना है इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सभी दल और नेता आंखें बंद करके दौड़ लगा रहे हैं। और जनता नेताओं व दलों के इस हाई वोल्टेज सियासी ड्रामे को देखकर हैरान और परेशान है। उसे किस दल की सरकार चाहिए और उसका नेता कैसा हो? इस पर सोचने का मौका भी नहीं मिल पा रहा है। इस राजनीति के ड्रामे में आम जनता की समस्याओं की कहीं कोई चर्चा हो सके इसकी संभावनाओं को समाप्त किया जा चुका है। चुनावी डफली बज रही है सब अपना—अपना राग अलाप रहे हैं लेकिन किसका स्वर व ताल ठीक और किसका नहीं इसको समझ पाना मुश्किल ही नहीं है असंभव है। मतदाताओं के लिए यह चुनाव वास्तव में एक कड़ी परीक्षा है वह इसे कैसे पास करते हैं। यह 10 मार्च को ही पता चलेगा।

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