मुफ्त की राजनीति पर रोक जरूरी

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इक्कीसवीं सदी में भारतीय राजनीति का जो ब्रांडिग रूप सामने आया है वह वास्तव में हैरान करने वाला है। अब देश की राजनीति की कोई राष्ट्रीय, सामाजिक विचारधारा नहीं रह गई है और न उसका उद्देश्य सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है। उपभोग के किसी भी उत्पाद की तरह सभी राजनीतिक दल और नेता अपनी अपनी ब्रांडिंग कर उसके जरिए वोट समेटते और सत्ता तक पहुंचने की कोशिशों में जुटे दिखाई देते हैं। जनता को मूर्ख बनाने के लिए इन नेताओं और राजनीतिक दलों ने मुफ्त की सौगातें बांटने का एक जरिया तलाश कर लिया है कि वह हर वोट की कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। हर वर्ग को कुछ न कुछ मुफ्त मुहैया कराने की घोषणाओं में वह एक दूसरे को पीछे छोड़ने की कोशिशें कर रहे हैं। कोई कहता है बिजली फ्री तो कोई कहता है पानी फ्री। अब तो इंतहा हो चुकी है छात्र—छात्राओं को लैपटॉप और साइकिल—स्कूटी ही फ्री नहीं बल्कि सभी महिलाओं को हर माह 1000 हजार रूपये भी मुफ्त देने की घोषणाएं की जा रही है कोई राशन फ्री की बात कर रहा है कोई सम्मान राशियों के नाम पर धन बांट रहा है। सरकार पहले गरीब और कमजोर तबकों को सब्सिडी देती थी जिसे अब धीरे—धीरे समाप्त किया जा रहा है और उनकी जगह नगद राशि उनके खातों में भेजी जा रही है। सवाल यह है कि इस मुफ्त की राजनीति ने चुनाव आयोग की इस व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है जिसमें वोट के लिए उपहार और नगद राशि के लेन देन को आचार संहिता के दुरुपयोग के दायरे में रखा जाता था। अब तो चुनाव से पूर्व लागू होने वाली आचार संहिता से पहले ही नेता और राजनीतिक दल ऐसा खेल करते हैं कि चुनाव आयोग भी उनका कुछ नहीं कर पा रहा है और उसके पास भी राजनीतिक दलों के इस खेल तमाशे को मूक दर्शक बनकर देखने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। अरविंद केजरीवाल ने अभी अपने पंजाब दौरे के समय पंजाब की सभी महिलाओं को 1000 नगद राशि देने की घोषणा की गई है उत्तराखंड में आप के 300 यूनिट मुफ्त बिजली के गारंटी कार्ड को असंवैधानिक बताते हुए हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है। मुफ्त की इस राजनीति का सबसे अहम पहलू यह है कि नेताओं व दलों द्वारा यह मुफ्त का पैसा कहां से आता है? निश्चित तौर पर यह पैसा जनता से वसूला गया वह टैक्स ही होता है जिसे जनकल्याण की योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए लेकिन इस मुफ्त की राजनीति के दौर में यह जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा राजनीतिक दल और नेता अपने ब्रांडिंग पर खर्च कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी अभी एमपी के दौरे पर गए यहां आयोजित आदिवासियों के कार्यक्रम पर 23 करोड़ खर्च किया गया चुनाव से पूर्व चुनावी सभाओं, दौरों और आयोजनों पर होने वाला यह सरकारी खर्च क्या चुनाव आयोग रोक पाएगा? एक आम आदमी जिसे मुफ्त का पैसा और सुविधा की लत लग चुकी है उसकी सोच भी यही बन चुकी है कि यह सरकार उन्हें कुछ तो दे रही है पहले वाली किसी सरकार ने क्या उन्हें कुछ कभी दिया है? इन लोगों को भी पता नहीं है कि यह जूता उन्हीं का है जिसे सरकार उनके सर पर मार रही है और हम यह जूता खा कर और भिखारी बनकर भी उनका ही गुणगान कर रहे हैं। मुफ्त की इस राजनीति को अगर नहीं रोका गया तो एक दिन यह देश के लोकतंत्र को भी निगल जाएगा यह तय है। देखना होगा कि क्या न्याय पालिका इस पर रोक लगाने के लिए कोई सख्त फैसला लेगी।

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