जनादेश के सम्मान की जरूरत

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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे कल आने वाले हैं। जो यह तय करेंगे कि कहां किसकी सरकार बनेगी। लेकिन इससे एक दिन पूर्व आए एग्जिट पोल के नतीजों को लेकर सियासी हल्कों में हलचल पैदा हो गई है जिसका कारण गोवा और उत्तराखंड में अल्पमत सरकारों की संभावनाएं हैं। किसी भी चुनाव में जब ऐसी स्थिति पैदा होती है कि बहुमत के लिए जरूरी सीटें किसी भी दल को न मिले तो सबसे अधिक सीटें पाने वाला दल सरकार बनाने का हकदार होता है। कई बार यह दल गठबंधन और दल—बदल के जरिए कामयाब हो जाता है और कई बार छोटे दल उसे नाकाम कर देते है और वह असली हकदार को पीछे धकेल कर खुद सत्ता में आ बैठते हैं। जैसा की 2017 के गोवा चुनाव में हुआ था। 17 सीटें जीतकर कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई थी, लेकिन 13 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रहने वाली भाजपा सत्ता पर काबिज हो गई थी। दरअसल इस जोड़—तोड़ में भाजपा का मुकाबला कांग्रेस के लिए कर पाना संभव नहीं था। कुछ इसी अंदाज में मध्यप्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। ऐसी स्थितियां भले ही देश की राजनीति के लिए सुचितापूर्ण न हो लेकिन दल—बदल के कानूनों की कमजोरी का फायदा बड़े और सशक्त दलों द्वारा उठाया जाना एक परंपरा जैसी बन गई है। जब पूर्ण बहुमत वाली सरकारों को सत्ता से बाहर होना पड़ता है। 2016 में उत्तराखंड में ऐसा ही प्रयास किया गया था भले ही भाजपा उसमें असफल हो गई थी। अगर वर्तमान में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में किसी भी राज्य में ऐसे हालात पैदा होते हैं, गठबंधन और दलबदल के जरिए सत्ता तक पहुंचने की तमाम उचित अनुचित तरीके अपनाया जाना तय है। यही कारण है कि कांग्रेस इसे लेकर भयभीत और आशंकित है। खबर है कि गोवा में तो उसने अपने सभी प्रत्याशियों को बाहर अज्ञात स्थान पर भेज दिया है ऐसी खबरें अभी 4 दिन पहले उत्तराखंड के बारे में भी आ रही थी कि वह अपने विधायकों को राजस्थान या छत्तीसगढ़ जहां उसकी अपनी सरकारें हैं, भेज सकती है। खैर इसे लेकर मतगणना से पूर्व ही कांग्रेस अपने घर की सुरक्षा के तमाम इंतजाम करने में जुटी है। दरअसल इस तरह सत्ताहरण की घटनाएं जनादेश का अपमान है और लोकतंत्र का मजाक बना रही है। जनता जिसे सत्ता में आने को मत कर रही है उसे विपक्ष में बैठने पर मजबूर होना पड़ रहा है और जनादेश जिसे विपक्ष में बैठने को कह रहा है वह सत्ता पर कब्जा कर रहा है। इस चलन और प्रवृत्ति को रोकने के लिए देश में कानून बदले जाने की जरूरत है। वरना नेताओं की तरह राजनीति और लोकतंत्र की विश्वसनीयता भी खत्म होती जाएगी। सत्ता का स्वाद और लालच नेताओं को संवैधानिक व्यवस्था को तोड़ने—मरोड़ने से नहीं रोक पा रहा है। विधायकों की खरीद—फरोख्त जैसी बातें वर्तमान दौर की राजनीति का हिस्सा बन चुकी है आज अगर मतगणना से पहले सत्ता का गणित बैठाने में नेता जुटे हैं तो उसका सीधा अर्थ यही है कि उनके लिए सत्ता ही सब कुछ है और जनादेश कोई मायने नहीं रखता। निश्चित ही यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।

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