गणतंत्र के लिए या तंत्र गण के लिए?

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आज देश अपना 75वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। बाबा साहेब की नेतृत्व में बने जिस संविधान के 1950 में लागू होने पर भारत एक गणराज्य या गणतंत्र बना क्या इन बीते 75 सालों में हमारा गणतंत्र सही मायनों में गणतंत्र बन सका है अगर आज जब देश को विकसित राष्ट्र बनाने का उद्घोष सुनाई दे रहा है और इस सवाल का जवाब ढूंढा जा रहा है तो ऐसी स्थिति में यही कहा जा सकता है कि देश के जिन नेताओं और ब्योरोक्रेटस के कंधों पर गणतंत्र की जिम्मेदारी थी उन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन ठीक से नहीं किया। सदियों लंबी गुलामी से देश को मुक्ति मिलने के बाद भले ही इस देश ने अपने 75 में साल के सफर में शुन्य से शिखर तक का रास्ता तय करने में कामयाबी हासिल कर ली हो और हम चांद—सूरज तक पहुंच गए हो लेकिन गणतंत्र के मतलब आज भी अधूरे ही है। अगर गणतंत्र के 75 साल बाद भी देश के लोगों को यह लगता हैं कि तंत्र गण के लिए नहीं गणतंत्र के लिए बने हैं तो इससे दुखद और कुछ नहीं हो सकता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने भले ही इस देश को एक बेहतर संविधान देने में कोई कोर कसर उठाकर न रखी हो लेकिन सत्ता और धन की लालची नेताओं ने संवैधानिक व्यवस्थाओं के अनुरूप कभी काम नहीं किया। हमारा संविधान न्याय समानता और स्वतंत्रता का सभी को समान अधिकार की पैरवी करता हो। लेकिन क्या न्याय, समानता और स्वतंत्रता सबको समान रूप से मिल सकी है। राजनीति श्रेय की होड में जुटी है वोट के लिए सामाजिक स्तर पर जाति, धर्म व अगड़े—पिछड़े जैसे तमाम विभाजन किये जा चुके हैं। देश की आधी आबादी 75 साल बाद भी सरकारी खैरात के भरोसे जी रही है। देश का कोई भी नेता और अधिकारी करोड़पति से कम नहीं है ढूंढने से भी कोई गरीब नहीं मिलेगा। भ्रष्टाचार की स्थिति यह है कि बिना चढ़ावा चढ़ाए किसी का कोई काम नहीं होता। गरीब कल्याण के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं का आधा हिस्सा बिचौलिये ही चट कर जाते हैं। संविधान निर्माता बाबा साहेब ने ठीक ही कहा था कि संविधान चाहे जितना भी अच्छा क्यों न हो यदि उसको क्रियावन्तित करने वाले बुरे लोग हैं तो सब कुछ बुरा ही हो जाता है। 75 साल बाद भी अगर सामाजिक न्याय की लड़ाई जारी है तो इस देश की जनता को आप भला कैसे समझा सकते हैं कि यह तंत्र आपके लिए है। जिस गण को संविधान ने अपना तंत्र चुनने का अधिकार दिया है उसे देश के नेता मुफ्त की रेवड़ियों के लालच या कहें मजबूरी के जाल में फंसा कर कैसे सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं और सत्ता पर कब्जा बनाएं रखने के लिए एक हथियार बनाए हुए हैं तंत्र के इस गणित को जनता के लिए समझ पाना भी मुश्किल है। देश की राजनीतिक सोच वोट को कैसे बटोरने तक ही सीमित हो गई है गण के लिए एक स्वस्थ तंत्र के बारे में सोचना और बात करना तो संभव ही नहीं है। भले ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सोच और सपना यह रहा हो कि वह एक ऐसे गणतंत्र की कल्पना करते हैं जहां देश का छोटे से छोटा आदमी भी यह महसूस करें कि यह देश उसका अपना है। देश भले ही विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन जाए या एक विकसित देश और आध्यात्मिक विश्व गुरु बन जाए लेकिन सही मायने में देश का गणतंत्र तभी सार्थक होगा जब तंत्र गण के लिए होगा। राजनीति को राष्ट्रीय सेवा का नाम देकर आप अगर खुद की सेवा करवा रहे हैं तो वह गणतंत्र और राजनीति नहीं कही जा सकती है। इस देश का निर्माण बहुत आसानी से नहीं हुआ है देश के लोगों ने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान किया है दशकों तक संघर्ष किया है तमाम मुश्किलें झेली है। जो लोग स्वतंत्रता आंदोलन और आजादी के इतिहास के पहले तीन—चार दशक के इतिहास को नहीं जानते समझते हैं वह गणतंत्र और देश तथा देश का समाज उनके लिए क्या मायने रख सकता है। आज के दौर में नेताओं व ब्यूरोक्रेट्स को इस देश के गणतंत्र और राष्ट्र धर्म को समझने की जरूरत है।

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