इस सियासत पर हंसे या रोंये?

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बात चाहे केंद्र सरकार द्वारा उन तीनों कृषि कानूनों को वापस किए जाने की हो जिनके खिलाफ किसानों ने 370 दिनों तक आंदोलन चलाया जिसमें 750 किसानों की जान चली गई या फिर उत्तराखंड सरकार द्वारा लाए गए उस देवस्थानम एक्ट की जिसे लेकर 734 दिनों से तीर्थ पुरोहित विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, की वापसी की। उक्त दोनों ही फैसलों के पीछे अहम कारण सिर्फ और सिर्फ वोट कि वह राजनीति ही है जिसके लिए वर्तमान दौर के सियासतदान कुछ भी करने को तैयार दिखाई देते हैं। इन दोनों ही फैसले को केंद्र और उत्तराखंड की सरकारों द्वारा यूपी और उत्तराखंड सहित पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में होने वाले संभावित नुकसान से बचने के लिए ही लिया गया है। यह अलग बात है कि भाजपा के नेता इसे लोकतंत्र की खूबसूरती बताकर अपने इन निर्णयों को साहसिक निर्णय बता कर खुद ही अपनी पीठ थपथपाने में लगे हुए हैं। भाजपा का यह काम सही मायने में होम करते हुए अपने ही हाथ जला लेने जैसा ही है। यह सोच भाजपा के रणनीतिकारों की हो सकती है कि इन फैसलों से लोग खुश हो जाएंगे और चुनाव में किसान तथा तीर्थ पुरोहित आदि सब भाजपा के समर्थन में खड़े हो जाएंगे किंतु यह सच नहीं है। भाजपा के नेता जिस आवाज को सुन नहीं पा रहे हैं या फिर सुनकर भी अनसुना करने की कोशिश कर रहे हैं वह यह है कि लोग पूछ रहे हैं जब तीनों कृषि कानून और देवस्थानम बोर्ड का फैसला वापस ही लेना था तो इसे लिया ही क्यों गया था? लोगों का कहना यह भी है कि अगर फैसले वापस ही लेने थे तो इतने लंबे समय तक किसानों और तीर्थ पुरोहितों को छकाया क्यों गया? देवस्थानम बोर्ड भंग करने के फैसले पर मुख्यमंत्री धामी का यह कहना कदाचित उचित ही है कि राजनीतिक फैसले समय—काल और परिस्थितियों के अनुसार ही लिए जाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी और उत्तराखंड के सीएम धामी शायद इतने लंबे समय से यही इंतजार कर रहे थे कि या तो इतने लंबे समय में यह विरोध प्रदर्शन और आंदोलन खुद ही हार थककर खत्म हो जाएंगे और अगर नहीं हुए तो हमारे पास लोकतंत्र की खूबसूरती की मिसाल पेश करने का मौका तो सुरक्षित होगा ही। इन फैसलों पर वाहवाही करने वाले लोगों की भी कमी नहीं है कोई इसे मोदी और धामी सरकार का मास्टरस्ट्रोक बता रहे है तो कोई इसे विपक्ष से मुद्दा झटक लेना कह रहा है। लेकिन जो सबसे अहम बात है वह यह है कि इन फैसलों को जनता किस नजरिए से देखती है सरकार ने खुद ही एक्ट बनाए और खुद ही एक्ट मिटाकर महान बनने की यह घटनाएं आने वाले दिनों में राजनीति के इतिहास में दर्ज हो चुकी है और इन्हें अब कोई बदल भी नहीं सकता है। देवस्थानम एक्ट को लाने वाले पूर्व सीएम की धामी के फैसले पर पहली प्रतिक्रिया यह थी कि मैं इस पर हंस भी नहीं सकता हूं और दूसरी प्रतिक्रिया मुझे जरा सा हंस तो लेने दो। वर्तमान की राजनीति को बेनकाब करने के लिए काफी है इस राजनीति पर हंसा जाए या फिर रोया जाए इसे आप खुद समझिये।

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