लोकतंत्र की ऐतिहासिक जीत

0
240

लोकतंत्र में यूं तो हर चुनाव एक महोत्सव जैसा ही होता है लेकिन जब बात देश के सर्वाेच्च संवैधानिक पद के लिए चुनाव की हो तो इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। देश के 15वें राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव के लिए जब एनडीए ने एक संथाल जनजाति की महिला द्रोपदी मुर्मू का नाम सामने आया था तभी यह तय हो गया था कि वह देश की 15वीं राष्ट्रपति बनने जा रही हैं। विपक्ष के बिखराव और चुनाव के दौरान महाराष्ट्र में हुए सत्ता परिवर्तन ने मुर्मू की इस जीत को और अधिक बढ़ा दिया। दरअसल आजादी के बाद से लेकर अब तक इस सर्वाेच्च संवैधानिक पदों पर तमाम वर्गों और क्षेत्रों के लोगों को पहुंचा कर भारत ने अपनी एकता में अनेकता और अखंड एकता का संदेश विश्व राष्ट्रों को देता आया है अब तक देश में तीन मुस्लिम दो दलित और 2 महिला और अब आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाकर लोकतंत्र की खूबसूरती को और भी अधिक बढ़ा दिया है। सच यह है कि इस सर्वाेच्च संवैधानिक पद पर कौन बैठेगा इसका फैसला भले ही संवैधानिक तरीके से चुनाव से होता रहा है जैसे इस बार हुआ है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि केंद्रीय सत्तारूढ़ दल अपने राजनीतिक हितों के हिसाब से प्रत्याशी तय करता है। द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनाए जाने पर भाजपा ने अपने राजनीतिक हित नहीं साधे ऐसा नहीं कहा जा सकता है। बसपा सुप्रीमो मायावती जो दलित व पिछड़ों के वोट बैंक पर राजनीति में बनी हुई है उनके द्वारा भला द्रोपदी मुर्मू का विरोध कैसे किया जा सकता था अगर वह ऐसा करती तो उनका वोट बैंक उनसे छिटकना तय था। लेकिन इस सब के बीच भी एक आदिवासी महिला को देश का राष्ट्रपति बनाया जाना महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक मील का पत्थर कहा जा सकता है। लोकसभा व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण की लड़ाई लंबे समय से लड़ रही महिलाओं को द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद पर चुने जाने के बाद अब इस बात की उम्मीद की जानी चाहिए कि अब वह दिन दूर नहीं है जब महिलाओं को राजनीति में आरक्षण मिल जाएगा। भले ही राष्ट्रपति के हाथ में ऐसा कुछ नहीं होता है जो वह किसी वर्ग विशेष के लिए कुछ खास कर पाए अगर ऐसा कुछ होता तो दलित और मुस्लिमों के लिए अब तक ऐसा कुछ रहा ही नहीं होता जो न हो गया होता। राष्ट्रपति के इस वर्तमान चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग से एक खास संदेश यह मिला है कि विपक्ष जो भाजपा और मोदी के खिलाफ एकजुट होने का प्रयास कर रहा है उसमें उसे सफलता मिलने वाली नहीं है। इस चुनाव में द्रोपदी मुर्मू को जो बड़ी जीत मिली है उसमें क्रास वोटिंग की बड़ी भूमिका रही है। बात अगर हम उत्तराखंड की ही करें तो कांग्रेस के 19 विधायकों में से दो ने तो वोट ही नहीं डाले बाकी 17 में से भी दो विधायकों मे से एक ने अपना वोट गलत डाल कर खारिज करा दिया जबकि एक ने द्रोपदी मुर्मू को ही वोट डाल दिया। जब किसी भी पार्टी के नेता ही पार्टी लाइन से अलग चले जाएं तो ऐसे में विपक्ष की एकता की क्या उम्मीद की जा सकती है। मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से आदिवासी समाज ही नहीं बल्कि दलित और पिछड़े सभी खुश हैं क्योंकि उनके लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here