भले ही आम आदमी को सूदखोरो के उत्पीड़न से निजात दिलाने के लिए सरकारी स्तर पर बैंको के राष्ट्रीयकरण से लेकर साहुकारी अधिनियम लाने जैसे पहल की गयी हो लेकिन निजी तौर पर पैसा ऋण के रूप मे ंउपलब्ध कराने और उस कर्ज पर मनमाने तरीके से ब्याज वसूले जाने की कुप्रथा का आज भी चलन यथावत जारी है। राजधानी दून के रायपुर क्षेत्र में हुई गोलीबारी जिसमें एक युवक की जान चली गयी इसका ताजा उदाहरण है। 1970 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी द्वारा देश के दर्जन भर से अधिक बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया था जिसका मूल उद्देश्य था आम आदमी की पहुंच बैंको तक बढ़ाया जाना। वह अपनी जमा पूंजी पर उचित ब्याज का लाभ उठा सके और जरूरत के समय बैंक से उचित ब्याज दर पर कर्ज भी ले सके। जिससे निजी साहूकारों और महाजनों के उत्पीड़न से उन्हे मुक्ति मिल सके। सरकार द्वारा इसके साथ ही देश में साहुकारी अधिनियम को लाया गया। अगर कोई पूंजीपति फांइनेंसर (ब्याज पर पैसा देने) का काम करना चाहता है तो वह सरकार से लाईसेंस लेकर यह काम कर सकता है। लेकिन यह भी दो प्रतिशत की जगह फाइनेंसर 10—10 फीसदी ब्याज वसूलने से बाज नहीं आये। आज भी हमारे समाज में तमाम एक से बड़े एक फाइनेंसर है जो अवैध तरीके से ब्याज पर पैसा देने का धंधा कर रहे है तथा उनके अपने काम करने का अलग ही तरीका है। उनके द्वारा ब्याज पर पैसा अपनी शर्तो पर दिया जाता है तथा ब्याज दर क्या होगी यह भी वह खुद ही तय करते है। उनके यहंा ब्याज पर भी ब्याज वसूला जाता है। ब्याज लेने वाला अगर उनके चगुंल में एक बार फंस गया तो फिर उनसे मुक्ति मुश्किल हो जाती है। अपने पैसे की रिकवरी के लिए यह सूदखोर कुछ किराये के गुंडे बदमाशों को भी अपने साथ रखते है जो कर्ज लेने वालों के साथ र्दुव्यहवार की किसी भी सीमा तक चले जाते है जैसा कि दून के रायपुर में हुआ। सूंत्रो से मिली जानकारी के अनुसार उत्तराखण्ड और दून में अन्य कई राज्यों के बड़े बड़े पूंजीपति सूदखोरी के इस धंधे में लगे हुए है। जो कि छोटे—मोटे दुकानदारों और व्यवसाइयों को ही नहीं अपितु बड़े बिल्डरों तक को पैसा देते है। राजधानी दून के पल्टन बाजार में बड़ी संख्या में दुकानदार और व्यवसायी इन फाइनेंसरों के शिंकजे में फंसे हुए है। अभी बीते दिनों पल्टन बाजार में ओउम जी वूल की दुकान में आग लगा दी गयी थी इस घटना के पीछे भी सूदखोरी का कारण विशेष था। पल्टन बाजार की अधिंकांश दुकानदार इनके जाल में फंसे हुए है तथा कई तो इनके कर्ज से मुक्ति के लिए अपनी दुकानें बेच चुके है और कई ऐसे है जिनकी दुकानें बिकने वाली है। सूदखोरी के इस धंधे में लगे लोगों की जड़े इतनी गहरी है कि उनका कारोबार गली मोहल्लों तक में धड़ल्ले से चल रहा है। शासन —प्रशासन में बैठे लोगों को इसकी जानकारी नही हो ऐसा नहीं माना जा सकता है। लेकिन अवैध और अनैतिक रूप से चलने वाले इस सूदखोरी के कारोबार को रोकने के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं किये जा सके है। धनबल की ताकत तो इनके पास है ही साथ ही रसूखता व बाहूबल भी कम नहीं है ऐसे मे आम और गरीबो को इस समस्या से कैसे निजात मिल सकती है यह चिंतनीय सवाल है।