निलंबन पर महासंग्राम

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इन दिनों भारतीय संसद में निलंबन का जो इतिहास रचा जा रहा है उसे लेकर जहां पक्ष और विपक्ष के बीच महासंग्राम छिड़ चुका है वहीं राजनीतिक जानकर इसकी अपने—अपने तरीके से आलोचना—समालोचना करने में जुटे हुए हैं। अब तक इस निलंबन की कार्रवाई के तहत लोकसभा और राज्यसभा के कुल 141 सांसदों को शीतकालीन सत्र के लिए निलंबित किया जा चुका है। देश के लोकतंत्र के इतिहास में यूं तो अब तक अनेक ऐतिहासिक घटनाएं घटती रही हैं 1970 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपातकाल को लागू किया जाना इसका एक उदाहरण है और अब सांसदों का इतनी बड़ी संख्या में निलंबन किया जाना भी एक ऐसी घटना है जो पहली बार पेश आई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल विपक्षी सांसदों के हंगामा में और निलंबन की घटना पर जो प्रतिक्रिया दी है उसमें जिस तरह का दम्भ दिखाई देता है वह इस बात की पुष्टि करता है कि वास्तव में अब भाजपा विपक्ष विहीन सरकार चाहती है। उनका यह कहना कि विपक्ष संसद में हुई घुसपैठ का समर्थन कर रहा है किसी के भी गले नहीं उतरने वाली है। प्रधानमंत्री मोदी का निलंबन के बाद संसद में खाली पड़ी सीटों की ओर इशारा करके यह कहना कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद इन्हें भी भर दिया जाएगा या तो उनके अहंकार को दर्शाता है या फिर उनके अति आत्मविश्वास को जो दोनों ही स्थितियां ठीक नहीं है। विपक्षी सांसदों का निलंबन अगर सत्ता पक्ष की मनमानी के लिए किया जा रहा है जैसा कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन कह रहे हैं कि सरकार सदन से विपक्ष का सफाया इसलिए कर रही है जिससे वह संसद में बिना किसी चर्चा और रोक—टोक के उन विधेयकों को मनमाने तरीके से पारित करा सके जो आम आदमी के हितों से जुड़े हुए हैं। इस सत्र में आपराधिक कानून संशोधन जैसे विधेयक लगे हुए हैं। उनका आरोप है कि जब विपक्षी दलों के सांसदों की बात नहीं सुनी जाएगी तो फिर देश में लोकतंत्र का अर्थ ही क्या रह जाता है। उनका कहना है कि निरंकुश हो चुकी भाजपा की सरकार अब देश में लोकतंत्र को ध्वस्त करना चाहती है। खैर देश के लोकतंत्र का आगे भविष्य क्या रहने वाला है इसकी दिशा और दशा को 2024 के चुनाव परिणाम ही सुनिश्चित करेंगे। लेकिन एक बात अवश्य ही सत्य है कि अब तक देश के लोकतंत्र के इतिहास में जब भी कोई अप्रत्याशित या ऐतिहासिक घटना घटित हुई है देश की आम जनता लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरूर खड़ी होती रही है। इसलिए यह मुगालता किसी को भी नहीं पालना चाहिए कि वह इस देश के लोकतंत्र से भी ऊपर है या लोकतंत्र को अपनी लाठी से हांक सकता है। 70 के दशक में देश की जनता उसे मुगालते को तोड़ चुकी है जब कांग्रेसी इंडिया इस इंदिरा और इंदिरा इस इंडिया का नारा लगाते थे। कोई भी सांसद वह भले ही किसी भी दल का क्यों न हो एक क्षेत्र का जनप्रतिनिधि होता है वह अपनी मर्जी से जाकर संसद में नहीं बैठा है उसके क्षेत्र की जनता ने उसे संसद में भेजा है जिससे वह अपने क्षेत्र की जनता के हितों की सुरक्षा कर सके। सभी सांसदों को अपनी बात संसद में रखने का अधिकार है उससे उसका यह अधिकार अगर छीना जाता है या उसकी बात को गौर से सुना और समझा नहीं जाता है उसकी आवाज को दबाने की कोशिश की जाती है तो यह किसी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं है। सत्ता पक्ष और विपक्ष इस मुद्दे को लेकर भले ही राजनीति पर उतर आए हो और एक दूसरे पर कीचड़ उछलने का काम करते हुए स्वयं को सही साबित करने में जुटे हुए हो लेकिन उन्हें यह कतई भी नहीं भूलना चाहिए कि उनके इस राजनीतिक तमाशे को देश की आम जनता बहुत गौर से देख और समझ रही है। एक अति संवेदनशील मुद्दे को जो संसद की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है उसके कारण और निवारण पर चिंतन मंथन करने की बजाय वह इस मुद्दे को कैसे संसद में हंगामामय और सांसदों के निलंबन के जरिए मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाने की कोशिश की जा रही है आम आदमी को सभी बातें अच्छे से समझ में आ रही है। अगर देश मेंं स्वयं को बहुत होशियार मानने वाले नेता यह समझ बैठे हैं कि जनता तो जनता है वह क्या जाने तो यह उनका भ्रम ही कहा जा सकता है। लेकिन महासंग्राम का अंत कब और कैसे होगा तथा इसके क्या परिणाम होंगे आने वाला समय ही बताएगा।

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