मानसिक विकृतियों का शिकार समाज

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राजधानी देहरादून में बीते कल पुलिस ने वायु सेवा में कार्यरत एक व्यक्ति को अपनी ही नाबालिक बेटी से दुष्कर्म के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। पीड़ित लड़की और उसकी मां के अनुसार आरोपी पिता बीते 5 साल से जब वह 12 साल की थी तभी से उसका शारीरिक शोषण कर रहा था। भले ही इससे पूर्व भी एक पिता द्वारा अपनी ही मासूम और अबोध बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाने की अन्य कई घटनाएं भी सामने आ चुकी हो, लेकिन इस तरह की वारदातों से यह सोचकर दरकिनार नहीं किया जा सकता है कि यह संसार है और इसमें तमाम तरह की घटनाएं दुर्घटनाएं घटती ही रहती हैं। अभी सिर्फ दो दिन पूर्व ही दून में एक बेटे द्वारा अपनी मां की बेरहमी से हत्या करने का मामला सामने आया था। कहा जा रहा था कि मां की टोका टोकी से तंग आकर बेटे ने यह काम किया। अभी इससे कुछ ही दिन पूर्व पहाड़ से एक और खबर आई थी जिसमें एक बेटे ने डंडे से पीट—पीट कर अपनी ही मां की हत्या कर दी थी। बताया जाता है कि वह मां से शराब के लिए पैसे मांग रहा था और मां के मना करने पर उसने मां को ही मार डाला। ऋषिकेश में अभी कुछ साल पहले एक मां ने अपने बेटे की हत्या इसलिए कर दी थी क्योंकि उसका बेटा अपनी विधवा मां को ही अपनी हवस का शिकार बना रहा था। अभी 2 दिन पूर्व अमेरिका में कैलिफोर्निया से भी एक ऐसी ही दिल दहलाने वाली वारदात सामने आई थी जिसे दिल दहला कर रख दिया। 5 साल के एक लड़के ने अपने ही जुड़वा भाई को चाकू से गोद कर मौत के घाट उतार दिया। इन तमाम घटनाओं का जिक्र यहंा इसलिए किया जाना जरूरी है क्योंकि हम जिस समाज में रह रहे हैं यह सारी घटनाएं इसी समाज में हमारे आसपास ही घटित हो रही है। जिस समाज को आदमी की जिंदगी का अहम हिस्सा माना जाता है और समाज के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है उस समाज में अगर मानसिक विकृतियों सामाजिक मर्यादाओं और मानवीय मूल्यों का इस हद तक पतन हो जाए जहां रिश्तो का कोई महत्व न रहे उस समाज में कोई भी व्यक्ति या परिवार भला स्वयं को कैसे सुरक्षित महसूस कर सकता है समाज की संरचना की आदमी को जरूरत इसलिए हुई थी क्योंकि उसे समाज से सुरक्षा मिलती है, परिवार जो इस समाज की सबसे छोटी इकाई है उसका अस्तित्व अगर खत्म हो जाता है तो उस समाज का खात्मा भी तय समझ लीजिए। अगर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के समाज पर नजर डालें तो वहां वास्तव में परिवार का मतलब सिर्फ संतान उत्पत्ति और माता—पिता के नाम तक ही सीमित है। आज हमारी भावी पीढ़ी में पाश्चत्य संस्कृति के पीछे दौड़ने की होड़ लगी हुई है यह होड़ सिर्फ अंग्रेजी बोलने या अंग्रेजों जैसी वेशभूषा तक ही सीमित नहीं है। अब यह होड़ हर क्षेत्र में खुली आजादी तक आ पहुंची है। आपके बच्चे कहां आते हैं कहां जाते हैं क्या करते हैं? इस मामले में अगर आप कुछ पूछना भी चाहे तो उन्हें ऐसा लगता है कि यह उनकी निजी जिंदगी में हस्तक्षेप है, टोका—टोकी है जो हमारी नई पीढ़ी को कतई भी गवारा नहीं है जहां तक बात उन्हें किसी काम के बारे में अच्छे या बुरे की समझ देने की है तो आप भूल जाए उनका सीधा जवाब होता है कि आपको कुछ आता भी है या आपको कुछ पता भी है। ऐसा लगता है कि अब नई पीढ़ी ने यह मान लिया है कि उनका ज्ञान ही सर्वाेपरि है उनसे ज्यादा कोई कुछ नहीं जानता है। सामाजिक विकृति के शिकार इन युवाओं द्वारा समाज को क्या परोसा जा रहा है और वह किस तरह के भावी समाज की संरचना कर रहे हैं? इस पर कुछ भी सोचने विचारने के लिए उनके पास समय नहीं है। बढ़ती नशावर्ती ने उनके बुद्धि और विवेक को उसे हद तक चबा लिया है जहां नाते रिश्ते, मान—मर्यादा और अच्छे—बुरे का भेद करने की उनकी क्षमता समाप्त हो चुकी है। जो किसी समाज और राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।

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