राजनीति का बाजारीकरण

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बीते एक दशक में भारतीय राजनीति का जिस तेजी के साथ बाजारीकरण हुआ है वह न सिर्फ देश के लोकतंत्र के लिए चिंतनीय विषय है बल्कि देश की राजनीति के लिए भी अत्यंत घातक सिद्ध होने वाला है। वर्तमान समय में देश के पांच राज्यों में चुनावी प्रक्रिया गतिमान है। इन राज्यों के चुनावों में सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों में चुनावी मुफ्त की रेवड़ियंा बांटने की जैसी होड़ देखी जा रही है वैसी शायद इससे पहले कभी नहीं देखी गई। जिस तरह से बाजार में अपने उत्पादों को बेचने के लिए एक के साथ एक फ्री की स्कीमें लाई जाती है ठीक वैसे ही यह राजनीतिक दल आम आदमी को एक दूसरे से कम दामों में या फिर मुफ्त में सेवाएं उपलब्ध कराने के वायदे और दावे कर रहे हैं। आम जनता अब इन वायदे और दावों के बीच इस कदर कंफ्यूज है कि उसे यह गणित लगाना भी मुश्किल हो रहा है कि किस दल के सत्ता में आने पर उसे कितने रुपए महीने या साल में कितने रुपए कम या अधिक फायदा होगा। उदाहरण के तौर पर आप ऐसे समझ सकते हैं कि राजस्थान की गहलोत सरकार जो 500 रूपये में रसोई गैस सिलेंडर उपलब्ध कराती आई थी उसके सापेक्ष अब भाजपा 450 रुपए में सिलेंडर देने का वायदा जनता से कर रही है। मध्य प्रदेश में तो इन मुफ्त की रेवड़ियों का घोषणाओ में भाजपा की शिवराज सरकार ने तमाम रिकॉर्ड तोड़ कर रख दिए। गरीबों को पक्के मकान से लेकर लड़कियों की शादी के लिए दो लाख मुफ्त तथा 5 साल तक गरीबों को ही नहीं 60 फीसदी आबादी को मुफ्त राशन से लेकर किसानों को हर माह 2000 नगद और न जाने क्या—क्या। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो पिछले तमाम चुनावों में जनता को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने वालों से बच के रहने की नसीहत देते रहे थे वह अब अपनी पार्टी के द्वारा सबसे ज्यादा मुफ्त की दुकान खोले जाने पर क्यों खामोश है? सच यह है कि मोदी सरकार ने केंद्रीय सत्ता में आने के बाद से ही मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की राजनीति शुरू कर दी गई थी। लेकिन अब तक यह खेल परोक्ष रूप से संचालित किया जा रहा था जो अब प्रत्यक्ष हो चुका है। इसका उदाहरण वह प्रधानमंत्री मुफ्त गरीब राशन योजना है जिसे कोरोना काल में इसलिए शुरू किया गया था कि इस आपदा काल में कोई गरीब भूखा न सोये। लेकिन इस योजना को पहले मार्च 2024 और अब 5 साल आगे तक जारी रखने की घोषणा इस बात का सबूत है कि मुफ्त की रेवड़ियंा दोनों हाथों से इसलिए बांटी जा रही है क्योंकि यह चुनावी टूल बन चुकी है आम जनता के अंदर अगर यह अवधारणा बन चुकी है कि पहले की सरकारों ने कभी किसी को कुछ दिया था क्या? कम से कम मोदी सरकार सब को कुछ न कुछ दे तो रही है यह धारणा मुफ्त की रेवड़ियों को बांटने से ही बनी है। भले ही इन मुफ्त की रेवड़ियों के चलन को न्यायपालिका लोकतंत्र के लिए घातक बताकर उसे पर चिंता जता रही हो या फिर चुनाव आयोग जो इसे रोकने में नाकाम साबित हो रहा है। राजनीति के इस बाजारीकरण ने लोकमत के महत्व को समाप्त कर दिया है। डिजिटल दौर में इसका प्रचार भी इतना आसान हो गया है कि राजनीतिक दलों व नेताओं को ज्यादा कुछ करने की भी जरूरत नहीं रह गई है। जनता का हाल भी यह है कि `अल्लाह दे रहा है खाने को, तो कौन जाए कमाने को’ लेकिन इसके दूरगामी परिणाम अत्यंत ही घातक होंगे इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

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