जोशीमठ आपदा का संदेश

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जोशीमठ भू—धसाव की घटना को लेकर आठ वैज्ञानिक संस्थाओं द्वारा किए गए सर्वे की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद यह बात अब स्पष्ट हो गई है कि जोशीमठ रहने लायक शहर नहीं है। इस रिपोर्ट में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि इस समस्या का कारण क्या है और इसका निवारण किस तरह से किया जा सकता है। जनवरी माह में जोशीमठ शहर में जो बड़ी दरारें जमीन और भवनो में आई इसका मुख्य कारण यही था कि इस शहर की जमीन की वहनीय क्षमता का बिना आकलन किये यहां अनियोजित तरीके से निर्माण और विकास कार्य किए गए। जिसके कारण प्राकृतिक जल स्रोतों और प्रकृति में भारी बदलाव आया। शहर में हुए अत्यधिक निर्माण कार्य और जल निकासी की कोई समुचित व्यवस्था न होने के कारण भी समस्या ने विकराल रूप लिया। वैज्ञानिकों के अनुसार जोशीमठ का वह हिस्सा जहां सबसे अधिक दरारें आई वह हाई रिस्क जोन में रखा गया है इस क्षेत्र में बने 900 से अधिक भवनो को या यह कहे की सिंह द्वार, गांधीनगर, मनोहर बाग और सुनील वार्ड वाला क्षेत्र कतई भी रहने लायक नहीं है तथा इसमें बने सभी भवनों का ध्वस्तिकरण जरूरी है यही नहीं जो मध्य और निम्न खतरे वाले क्षेत्र हैं वह भी आपदा के दृष्टिकोण से सुरक्षित नहीं है। शहर का सिर्फ एक चौथाई हिस्सा ही ऐसा है जहां रहा जा सकता है। जोशीमठ के हाई रिस्क जोन वाले क्षेत्र में अब किसी भी तरह के मरम्मत कार्य या नवनिर्माण पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का सुझाव भी वैज्ञानिकों द्वारा दिया गया है। ऐसी स्थिति में जब राज्य सरकार इस आपदा को लेकर यह सोच रही थी कि जोशीमठ में स्थिति अब सामान्य है वह सोच पूरी तरह से गलत थी। जोशीमठ शहर का विस्थापन अब एक बड़ी समस्या और चुनौती बना हुआ है। इस ऐतिहासिक शहर का अस्तित्व बनाए रखने के लिए यहां की की आबादी को सीमित किया जाना तथा विकास कार्यों पर और निर्माण पर प्रतिबंध अति आवश्यक है। इसके विस्थापन के लिए पहले भी कई स्थान चिन्हित किए गए थे तथा केंद्र सरकार 1465 करोड़ की मंजूरी दी गई थी इसके लिए गौचर में 25 हेक्टेयर जमीन पर विस्थापितों को बसाने की योजना है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जोशीमठ के आसपास के कई गांव से भू धसाव संकट के संकेत सामने आ रहे हैं। जो इस समस्या को और भी अधिक गंभीर बनाते हैं। पहाडों़ में भू धसाव और भूस्खलन की जो समस्या पैदा हुई है या विकराल होती जा रही है वह सिर्फ जोशीमठ या उसके आसपास तक ही सीमित नहीं है नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ से लेकर रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी तक पहाड़ का एक बड़ा भूभाग इस समस्या की जद में है। सड़क, पुल, सुरंगों के निर्माण और बहुमंजिलीय इमारतों के निर्माण ने पहाड़ के मूल स्वरूप को और उसकी प्रकृति को पूरी तरह बदल दिया है। नदियों के किनारे अतिक्रमण तथा निर्माण सामग्री व पहाड़ों का मलवा नदी में धकेले जाने से उनका प्रवाह बदला है। इस साल मानसूनी दौर में इसका प्रभाव तमाम जगह बाढ़ के रूप में बिंध्वसकारी देखा गया है। प्रकृति से की जाने वाली अत्यधिक छेड़छाड़ अब मानव समाज के लिए मुसीबत बन चुकी है। किसी एक शहर का विस्थापन या किसी एक क्षेत्र का ट्रीटमेंट तो संभव है लेकिन अगर समूचे पहाड़ की हालत एक जैसी हो जाए तो समस्या का समाधान असंभव हो जाएगा।

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