अनियोजित विकास तबाही का कारण

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वर्तमान मानसूनी सीजन में हिमाचल और उत्तराखंड सहित सभी हिमालयी राज्यों में हुई भीषण तबाही के बाद अब यह सवाल सबसे अहम हो गया है कि आखिर इस बर्बादी के लिए कौन जिम्मेदार है। अगर इसे एक लाइन में समझने का प्रयास किया जाए तो पहाड़ पर बीते कुछ दशकों में जो अनियोजित विकास हुआ है वहीं इसका सबसे अहम कारण है। इस तबाही के लिए अब की सरकारी नीतियां और आम आदमी का वह लोभ जिसे विकास का नाम दिया जाता रहा है दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं। सत्ता में बैठे लोगों ने पहाड़ और प्रकृति की सुरक्षा तथा संतुलन के लिए नीतियां तो तमाम बनाई मगर इन्हें धरातल पर उतारने में कतई भी ईमानदारी नहीं बरती गई। उदाहरण के तौर पर हिमाचल में गैर हिमाचली लोगों के लिए कृषि और गैर कृषि भूमि खरीदने पर प्रतिबंध है लेकिन भू राजस्व अधिनियम की धारा 118 के तहत जमीन खरीदने के लिए सरकार की अनुमति के प्रावधान को जोड़कर इस कानून को उल्टा खुंटी पर लटकाने में कोई कमी नहीं रखी गई यही कारण है कि पूरे हिमाचल में बड़ी—बड़ी बहू मंजिले इमारतें खड़ी हो गई। बात उत्तराखंड की की जाए तो आप मसूरी को भी एक उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं जहां नए निर्माण पर पूर्णतया रोक है लेकिन इसके बावजूद भी यहां निर्माण कार्य धड़ल्ले से होते रहे हैं। भले ही भवनो के पुनर्निर्माण मरम्मत कार्यों की आड़ में किए जा रहे हो। राज्य में विकास होना चाहिए राज्य का विकास किसी भी सूरत में रुकना नहीं चाहिए यह एक अवधारणा बड़े वर्ग की रही है। अच्छी चौड़ी सड़कें हो, बंाध हो और उघोग धंधे हो यह तभी संभव है जब बड़ी—बड़ी योजनाओं को धरातल पर उतारा जाएगा। लेकिन इन कार्यों को करने के लिए पहाड़ पर लंबी—लंबी सुरंगों को बनाने और रेल तथा सड़कों का जाल बिछाने के लिए जंगलों का सफाया किया जाना और पहाड़ का सीना चीरा जाना भी जरूरी है जो आज के वर्तमान के दौर में हो रहा है। जो विकास के पक्षधर है उन्हें यह सब खूब मनभावन लग रहा है और उन्हें इसके दूरगामी परिणामों की कोई चिंता नहीं है। यही नहीं इन पर्वतीय राज्यों के शहरी क्षेत्र का जिस तरह से अनियोजित विकास हो रहा है और आबादी बढ़ रही है वह भी इस विनाश का एक बड़ा कारण है। बिना नियोजन के जहां न सड़के हैं न कोई सीवर और डे्रनेज सिस्टम ऐसे हैं जिससे शहरों का तबाही की जद में आना स्वाभाविक है। किस शहर की वहन शील शक्ति क्या है इस पर बिना विचार किया बस लोग बसे जा रहे हैं और कंक्रीट के जंगल खड़े होते जा रहे हैं और तो और पहाड़ पर नदियों नालों और खालों के जल प्रवाह क्षेत्र पर लोगों ने अतिक्रमण कर बस्तियां बसा दी है। ऐसे में अगर अतिवृष्टि के हालात पैदा होते हैं जैसे इस मानसून काल में देखे गए तो फिर इन शहरों और बस्तियों का तबाह होना स्वाभाविक ही है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) अब पहाड़ी राज्यों के लिए ठोस आपदा नीतियां बनाने पर मंथन कर रहा है। भुगर्भ विभाग विशेषज्ञों द्वारा पर्वतीय राज्यों के तमाम स्थानों और शहरों का सर्वेक्षण कार्य शुरू किया गया है जो उसे क्षेत्र की वहनीय क्षमता और भवनोंं के आकार प्रकार पर अपनी रिपोर्ट तैयार करेगा इसमें उत्तराखंड के भी 15 शहरों को शामिल किया गया है। इस मानसून में राजधानी दून से लेकर हरिद्वार, लक्सर और रुड़की में जो जल भराव से नुकसान हुआ वह जोशीमठ में भू धसांव से हुए नुकसान से कम नहीं है। अगर इस बर्बादी को रोकना है तो इस अनियोजित विकास पर लगाम लगाना भी जरूरी है।

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