लोकायुक्त से डर क्यों?

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उत्तराखंड की वर्तमान धामी सरकार और पूर्ववर्ती भाजपा सरकार भले ही भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जीरो टॉलरेंस का दावा करती रही हो लेकिन राज्य में व्यापक स्तर पर हो रहे भ्रष्टाचार को रोकने के प्रति अगर भाजपा की सरकारें वाकई दृढ़ संकल्पित होती तो राज्य में 6 साल पहले ही एक सशक्त लोकायुक्त का गठन हो गया होता। बीते 6 सालों में जो भाजपा की सरकारें लोकायुक्त का गठन नहीं कर सकी वह अब हाई कोर्ट से 6 माह का समय मांग रही हैं। सवाल यह है कि भाजपा की सरकारों ने बीते 6 सालों में लोकायुक्त का गठन क्यों नहीं किया? हाई कोर्ट ने सरकार की इस अपील को खारिज करते हुए 3 माह के अंदर लोकायुक्त गठन का समय दिया है। सच यह है कि सत्ताधारी दल और उसके नेता चाहते ही नहीं है कि राज्य में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ऐसी कोई स्वायत्तता और सशक्त संस्था बने जो भ्रष्ट अफसरों और नेताओं पर शिकंजा कस सके उन्हें इस बात का डर सताता रहा है कि अगर ऐसी कोई संस्था अस्तित्व में आई तो उसके कई बड़े नेताओं को जेल की हवा खानी पड़ सकती है। 2017 के विधानसभा चुनाव के अपने घोषणा पत्र में भाजपा ने सत्ता में आने के 100 दिन के अंदर लोकायुक्त के गठन का वायदा किया, जीत के बाद जब त्रिवेंद्र सिंह रावत को सीएम की कुर्सी पर बैठने का मौका मिला तो उन्होंने अपनी पहले पत्रकार वार्ता में भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की बात कही थी और अपनी सरकार के पहले विधानसभा सत्र में ही उनके द्वारा लोकायुक्त का प्रस्ताव भी सदन में पेश किया गया जिसे विपक्ष की सहमति के बावजूद विधानसभा की प्रवर समिति के पास भेज दिया गया था। 6 साल बीतने के बाद भी उनके इस प्रस्ताव का कुछ अता—पता नहीं है कि वह कहां धूल फंाक रहा है। उनके बाद तीरथ सिंह रावत और उनके भी बाद पुष्कर सिंह धामी सीएम की कुर्सी पर आसीन रहे लेकिन सरकार अपने कार्यकाल को पूरा करने के बाद भी लोकायुक्त का गठन नहीं कर सकी? अब धामी पार्ट—2 सरकार को भी एक साल से अधिक का समय बीत चुका है लेकिन स्थिति जस की तस बनी हुई है। अभी अगर हल्द्वानी निवासी रवि शंकर जोशी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर नहीं की होती तो शायद इस मुद्दे पर सरकार रत्ती भर भी विचार नहीं करती। खास बात यह है कि राज्य में जितनी भी जांच एजेंसियां हैं वह सब राज्य सरकार के अधीन है वह अपनी मर्जी से किसी भी अधिकारी या मंत्री तथा विधायक के खिलाफ किसी भी मामले की जांच नहीं कर सकती है। उन्हें पहले राज्य सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि सिर्फ उन्हीं मामलों की जांच संभव है जिनकी जांच सरकार या मुख्यमंत्री करना चाहेंगे। क्या कोई सरकार अपने मंत्री या विधायक के खिलाफ जांच कराएगी? और अगर कराती भी है तो क्या वह एजेंसी जिसे सरकार के अधीन कम करना है किसी मामले की जांच निष्पक्ष कर सकती है? यह संभव ही नहीं है। भाजपा की सरकारों ने बीते 6 सालों में जो जांच कराई है वह सिर्फ खानापूर्ति है या दिखावा भर है। सरकार द्वारा अधिकांश मामलों में एसआईटी जांच कराने की बात कही जाती है सवाल यह है कि यह एसआईटी क्या है? जब विजिलेंस भी सरकारी तंत्र का हिस्सा है तो फिर किसी जांच का काम निष्पक्ष किया जाना कैसे संभव है। तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी ने बड़े दमखम के साथ लोकायुक्त की पहल को आगे बढ़ाया था लेकिन कांग्रेस ने उनके प्रयासों को पलीता लगा दिया और अब भाजपा भी इसे अधर में लटकाए रखने में ही अपनी भलाई देख रही है लेकिन अब हाई कोर्ट के निर्देश के बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि इस राज्य को जल्द लोकायुक्त मिल जाए।

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