धर्म की राजनीति, लोकतंत्र को खतरा

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अनेकता में एकता वाली अपनी अनूठी छवि वाला हमारा देश इन दिनों धर्म आधारित राजनीति के चलते नफरत की आग में झुलस रहा है देश का समाज विभिन्न स्तरों पर वैचारिक विद्वेष के कारण हिस्से—हिस्से में विभाजित होता जा रहा है। समाज से आपसी भाईचारे और सद्भाव की भावना का लोप होता जा रहा है। बीते कल देश की सर्वाेच्च अदालत ने नफरती भाषणों को लेकर एक दूसरे के खिलाफ अवमानना की शिकायतों की सुनवाई पर जो कुछ कहा गया है उसमें कुछ बातें काबिले गौर है। इन बातों में सबसे महत्वपूर्ण बात है सियासत से धर्म को अलग किए जाने की। अदालत ने कहा कि जिस क्षण राजनेता सियासत में धर्म का इस्तेमाल बंद कर देंगे उस दिन नफरती भाषणों की समस्या का अंत हो जाएगा। कोर्ट की पीठ ने इन नेताओं को खुराफाती तत्व मानते हुए पंडित नेहरू और अटल बिहारी वाजपेई का उदाहरण दिया और कहा कि उन्हें सुनने के लिए दूर दूर से लोग आते थे। कोर्ट की पीठ के कहने का संक्षिप्त सार यही है कि देश में नफरत और सांप्रदायिकता का जो जहर घोला जा रहा है उसका कारण वह सियासत दान ही है जो आए दिन टीवी व सार्वजनिक मंचों से नफरती भाषण देते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भले ही हमारे नेता वन नेशन आईडेंटिटी की बात करें या वन नेशन वन राशन कार्ड की बात करें लेकिन देश के नेताओं ने ही समय—समय पर अपने राजनीतिक फायदों के लिए ऐसे तमाम मुद्दों का चुनाव में इस्तेमाल किया जाता रहा है। जो धर्म के आधार पर वोटों का पोलराइजेशन करने वाले रहे हैं। मंडल कमंडल की राजनीति से सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने वाले नेताओं ने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि इसका देश के भावी समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा? 2024 का आम चुनाव ओबीसी के आरक्षण के मुद्दे पर होने वाला है। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने शायद कभी सोचा भी नहीं होगा कि आरक्षण की जिस मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर वह राजनीति चमकाना चाहते हैं वह देश को कितनी जातियों के जंजाल में उलझाने वाला है। धर्म और धार्मिक चिन्हों और उनकी पूजा पद्धतियों तथा धार्मिक स्थलों को लेकर होने वाली तथा ट्टतिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार, जैसे नारों पर की जाने वाली राजनीति से देश के लोग बखूबी वाकिफ है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ अगर इन नफरती भाषणों को लेकर देश के नेताओं को जिम्मेदार मानती है और यह कहती है कि जब तक राजनीति में धर्म का इस्तेमाल बंद नहीं होगा तब तक यह नफरती भाषण भी बंद नहीं होंगे तो यह गलत नहीं है। सवाल यह है कि अदालतें क्या नफरती भाषणों पर अवमानना के केसों की सुनवाई के लिए ही बनी है? या कितने केसों की सुनवाई अदालते कर सकती हैं यहां तो हर सैकड़ों केस ऐसे आते हैं। जस्टिस के एम जोसेफ का कहना है कि कोर्ट के हालिया फैसले में कहा गया है कि राजनीति को धर्म से मिलाना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। बीते पांच छह दशक से देश के नेता इस खतरनाक खेल को खेल रहे हैं। हर चुनाव से पहले उनके द्वारा कुछ न कुछ ऐसे मुद्दे क्यों लिए जाते हैं। देश की जनता भी इन नेताओं के इस खेल से वाकिफ हो चुकी है। पीठ ने सुझाव भी इस देश की जनता को दिया है कि वह खुद इस बात का संकल्प लें कि वह दूसरे समुदाय व धर्मों को अपमानित नहीं करें।

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