सवाल आम जनता का

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मुद्रास्फीति, रेपोरेट और रिवसवाल आम जनता का
मुद्रास्फीति, रेपोरेट और रिवर्स रेपो रेट तथा ग्रोथ रेट जैसे अर्थशास्त्रीय शब्दों का मतलब देश के आम आदमी के लिए समझ पाना बहुत मुश्किल सवाल है यही कारण है कि उसे सिर्फ दाल, आटा, चावल और तेल तथा ईंधन की कीमतों के अंकगणित से ही मतलब होता है अगर आम उपभोग की जरूरी वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी हो रही है तो इसका अर्थ है कि महंगाई बढ़ रही है। सत्ता में बैठे लोग भले ही देश की संसद में विकसित देशों की मुद्रास्फीति के आंकड़े पेश कर यह कह रहे हो कि भारत में महंगाई है कहां? लेकिन यह सच नहीं है। भारत की गिनती अगर उन विकसित देशों में होती तब वित्त मंत्री का तर्क ठीक हो सकता था। बीते एक माह में आटा—चावल और दूध के दामों में 10 फीसदी से ज्यादा वृद्धि हुई है। रसोई गैस पेट्रोल और डीजल के दामों की वृद्धि की बात तो छोड़ ही दीजिए। अच्छा हो की फल और सब्जियों तथा दालों की कीमत और खाघ तेलों की बात न करें। अभी हाल ही में आए एक सर्वे में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि बीते 1 साल में हर परिवार का खर्च 20 से 25 फीसदी तक बढ़ गया है। बीते कल आरबीआई के गवर्नर द्वारा रेपो रेट में .50 फीसदी की वृद्धि करने की घोषणा की गई है इस घोषणा से पूर्व उन्होंने बढ़ती महंगाई की बात करते हुए कहा है कि लोगों को राहत दिलाने के लिए यह जरूरी था अभी हाल ही के कुछ महीनों में रेपो रेट में की गई यह तीसरी वृद्धि है । यह अर्थशास्त्र का पुराना फंडा है जब बाजार में तेजी को कम करने के लिए रेपो रेट को बढ़ाया जाता है और तेजी लाने के लिए रेपो रेट घटाया जाता है। रिजर्व बैंक से बैंको को ऊंची ब्याज दर पर पैसा मिलेगा तो वह कर्ज कम लेगी। जिससे मुद्रास्फीति पर नियंत्रण बना रहेगा। लेकिन इसका प्रभाव वास्तव में उन लोगों पर पड़ता है जो बैंकों से ऋण लेते हैं। बैंकों पर इसका कोई खास असर नहीं होता है। लोन लेने वालों की ईएमआई की किस्तें अवश्य बढ़ जाती हैं। केंद्र सरकार का फोकस सही मायने में महंगाई को कम करने या आम आदमी की परेशानियों को कम करने पर है ही नहीं उसका फोकस तो अपनी आय बढ़ाने पर ज्यादा है। मक्खन, पनीर और दही तथा छाछ जैसी वस्तुओं पर जीएसटी लगाना उसकी इसी सोच का नतीजा है। बात थोड़ी अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों की भी कर लेते है जिनमें भारी गिरावट आई है क्रूड आयल जो 120 डालर प्रति बैरल था वह अब 90 रूपये के स्तर से भी नीचे आ गया है लेकिन पेट्रोल डीजल के दाम अभी भी जस की तस बने हुए हैं। बीते कल कांग्रेसियों को हमने काले कपड़े पहन कर बढ़ती महंगाई के खिलाफ देशभर में सड़कों पर प्रदर्शन करते देखा। केंद्रीय सत्ता में आने के बाद यह पहला मौका है जब विपक्ष ने किसी मुद्दे पर इतना बड़ा आंदोलन किया, प्रदर्शन किया हो। सवाल यह है कि जब विपक्षी दलों के नेताओं को और आम आदमी को यह महंगाई दिख रही है तो सत्ता में बैठे लोगों को क्यों नहीं दिख रही है? बेतुकी बात देखिए वह इस विरोध को राम मंदिर के विरोध से यह कहकर जोड़ रहे हैं कि 5 अगस्त को राम मंदिर का भूमि पूजन हुआ था इसलिए यह राम मंदिर का विरोध है। कभी भाजपा नेता इसे ईडी के डर से दबाव बनाने का प्रयास बताते हैं। अच्छा हो आम जनता की परेशानियों से जुड़ा यह मुद्दा सत्ता में बैठे लोगों को दिखे और वह आम जनता के बारे में भी सोचे।र्स रेपो रेट तथा ग्रोथ रेट जैसे अर्थशास्त्रीय शब्दों का मतलब देश के आम आदमी के लिए समझ पाना बहुत मुश्किल सवाल है यही कारण है कि उसे सिर्फ दाल, आटा, चावल और तेल तथा ईंधन की कीमतों के अंकगणित से ही मतलब होता है अगर आम उपभोग की जरूरी वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी हो रही है तो इसका अर्थ है कि महंगाई बढ़ रही है। सत्ता में बैठे लोग भले ही देश की संसद में विकसित देशों की मुद्रास्फीति के आंकड़े पेश कर यह कह रहे हो कि भारत में महंगाई है कहां? लेकिन यह सच नहीं है। भारत की गिनती अगर उन विकसित देशों में होती तब वित्त मंत्री का तर्क ठीक हो सकता था। बीते एक माह में आटा—चावल और दूध के दामों में 10 फीसदी से ज्यादा वृद्धि हुई है। रसोई गैस पेट्रोल और डीजल के दामों की वृद्धि की बात तो छोड़ ही दीजिए। अच्छा हो की फल और सब्जियों तथा दालों की कीमत और खाघ तेलों की बात न करें। अभी हाल ही में आए एक सर्वे में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि बीते 1 साल में हर परिवार का खर्च 20 से 25 फीसदी तक बढ़ गया है। बीते कल आरबीआई के गवर्नर द्वारा रेपो रेट में .50 फीसदी की वृद्धि करने की घोषणा की गई है इस घोषणा से पूर्व उन्होंने बढ़ती महंगाई की बात करते हुए कहा है कि लोगों को राहत दिलाने के लिए यह जरूरी था अभी हाल ही के कुछ महीनों में रेपो रेट में की गई यह तीसरी वृद्धि है । यह अर्थशास्त्र का पुराना फंडा है जब बाजार में तेजी को कम करने के लिए रेपो रेट को बढ़ाया जाता है और तेजी लाने के लिए रेपो रेट घटाया जाता है। रिजर्व बैंक से बैंको को ऊंची ब्याज दर पर पैसा मिलेगा तो वह कर्ज कम लेगी। जिससे मुद्रास्फीति पर नियंत्रण बना रहेगा। लेकिन इसका प्रभाव वास्तव में उन लोगों पर पड़ता है जो बैंकों से ऋण लेते हैं। बैंकों पर इसका कोई खास असर नहीं होता है। लोन लेने वालों की ईएमआई की किस्तें अवश्य बढ़ जाती हैं। केंद्र सरकार का फोकस सही मायने में महंगाई को कम करने या आम आदमी की परेशानियों को कम करने पर है ही नहीं उसका फोकस तो अपनी आय बढ़ाने पर ज्यादा है। मक्खन, पनीर और दही तथा छाछ जैसी वस्तुओं पर जीएसटी लगाना उसकी इसी सोच का नतीजा है। बात थोड़ी अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों की भी कर लेते है जिनमें भारी गिरावट आई है क्रूड आयल जो 120 डालर प्रति बैरल था वह अब 90 रूपये के स्तर से भी नीचे आ गया है लेकिन पेट्रोल डीजल के दाम अभी भी जस की तस बने हुए हैं। बीते कल कांग्रेसियों को हमने काले कपड़े पहन कर बढ़ती महंगाई के खिलाफ देशभर में सड़कों पर प्रदर्शन करते देखा। केंद्रीय सत्ता में आने के बाद यह पहला मौका है जब विपक्ष ने किसी मुद्दे पर इतना बड़ा आंदोलन किया, प्रदर्शन किया हो। सवाल यह है कि जब विपक्षी दलों के नेताओं को और आम आदमी को यह महंगाई दिख रही है तो सत्ता में बैठे लोगों को क्यों नहीं दिख रही है? बेतुकी बात देखिए वह इस विरोध को राम मंदिर के विरोध से यह कहकर जोड़ रहे हैं कि 5 अगस्त को राम मंदिर का भूमि पूजन हुआ था इसलिए यह राम मंदिर का विरोध है। कभी भाजपा नेता इसे ईडी के डर से दबाव बनाने का प्रयास बताते हैं। अच्छा हो आम जनता की परेशानियों से जुड़ा यह मुद्दा सत्ता में बैठे लोगों को दिखे और वह आम जनता के बारे में भी सोचे।

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