दबाव में लिया गया फैसला

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अगर कोई सरकार अपने फैसलों को खुद ही पलटने पर विवश हो जाती है तो निश्चित तौर पर यह उसकी कमजोरी और दूरदर्शिता को ही दर्शाता है। वह चाहे केंद्र की भाजपा सरकार हो या फिर उत्तराखंड की भाजपा सरकार। उत्तराखंड की सरकार ने बीते चंद महीनों में अपने तीन मुख्यमंत्री बदले थे उसने ऐसा किसी संवैधानिक मजबूरी में नहीं किया था अपितु उसे यह निर्णय ऐसी स्थिति में लेने पर मजबूर होना पड़ा था जब उसके एक के बाद एक दोनों पूर्व मुख्यमंत्री राजकाज चलाने में अक्षम दिखाई दिए और उनके बयानों और फैसलों के कारण पार्टी की साख खराब होने के साथ जनता ने उनका विरोध शुरू कर दिया। वरना प्रचंड बहुमत के बाद भी किसी दल को अपनी सरकार का नेतृत्व बदलने की क्या आवश्यकता हो सकती है यह अलग बात है कि भाजपा मुख्यमंत्रियों को बदलने की घटनाओं को अपनी पार्टी और सरकार का आंतरिक मामला बताकर उस पर पर्दा डालने की नाकाम कोशिश कर रही है। ठीक वैसे ही अब देवस्थानम बोर्ड को भंग करने का फैसला लेने के बाद भी वह इसे बेहतर लोकतंत्र की निशानी और लोकतंत्र की खूबसूरती बताकर अपनी अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय क्षमता को छुपा रही है लेकिन सच यही है कि इस फैसले ने भाजपा के प्रचंड बहुमत के दंभ को तोड़ दिया है। तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत जो 2019 में देवस्थानम बोर्ड का प्रस्ताव लेकर आए थे और 57 विधायकों के प्रचंड बहुमत के दभ्ंा पर इसे एक्ट बनवाने में कामयाब रहे थे उनका यह निर्णय अगर जन अपेक्षाओं के अनुरूप होता तो तीर्थ पुरोहित और पुजारी इसका पहले ही दिन से विरोध न कर रहे होते। 2 साल से उनका जो आंदोलन अनावृत जारी है अगर सरकार उनकी बात समय रहते सुन लेती तो उनकी यह फजीहत नहीं होती। लेकिन उनकी बात सरकार ने तब सुनी है जब उन्होंने त्रिवेंद्र सिंह को केदारनाथ मंदिर में नहीं घुसने दिया और 2022 के चुनाव में भाजपा को सबक सिखाने के लिए कमर कस ली। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र की व जन भावनाओं की कद्र करने या उसकी खूबसूरती की बात करना बेमानी है। सरकार को अगर वैष्णो देवी मंदिर के श्राइन बोर्ड की तर्ज पर देवस्थानम बोर्ड बनाना ही था तो इसमें केवल चार धामों को ही शामिल करना चाहिए न कि प्रांत के सभी 51 अन्य मंदिरों को भी। ऐसा करने का सीधा अर्थ सरकार का धर्म के कामों में हस्तक्षेप माना जाना स्वाभाविक ही था। त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाए जाने के पीछे देवस्थानम बोर्ड के गठन और गैरसैंण को तहसील बनाने जैसे तुगलकी निर्णय ही अहम कारण थे। धामी सरकार से पूर्व तीरथ सरकार के समय में जहां गैरसैंण का फैसला वापस ले लिया गया था वही देवस्थानम बोर्ड के फैसले पर पुनर्विचार की बात शुरू हो गई थी लेकिन इस फैसले में की गई देरी ने विपक्ष को एक और चुनावी मुद्दा थमा दिया है। धामी ने बोर्ड भंग करने का ऐलान तो कर दिया लेकिन इसका कितना चुनावी लाभ हो पाएगा यह चुनाव परिणाम ही बताएंगे।

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