राजनीति भी क्या अजब—गजब तमाशा है। सत्ता में बैठे लोग सामाजिक सुरक्षा पर जब व्याख्यान करते हैं तो ऐसा लगता है कि मानों देश के नागरिकों की जान माल की सुरक्षा को लेकर वह भारी प्रिकमंद है लेकिन यह व्यावहारिक स्तर पर उनकी लापरवाही जैसी कोई दूसरी मिसाल नहीं देखी जा सकती है। बीते दो सालों से देश के लोगों ने कोरोना के कारण जो दर्द झेला है वह किसी से छिपा नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर तमाम बड़े नेता लोगों को नसीहते देते रहे हैं कि उनकी सुरक्षा सतर्कता में ही निहित है, दो गज की दूरी और मास्क है जरूरी का पालन हर हाल में किया जाना चाहिए। लेकिन आम आदमी को भीड़भाड़ वाली जगहों पर न जाने की नसीहत देने वाले यह नेता अपनी चुनावी जनसभाओं, रैलियों और उद्घाटन तथा शिलान्यास समारोह में लाखों लाख लोगों की भीड़ इकट्ठा करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं। उस वक्त उनके आनंद की कोई सीमा नहीं होती है जब वह भारी भीड़ को देखकर कहते हैं कि जहां तक नजर जाती है नरमुंड ही नरमुंड दिखते हैं। नेता के लिए यह नर मुंडो की भीड़ मनुष्य की भीड़ न होकर जैसे भेड़ बकरियों की भीड़ हो, जिसके मरने जीने से उनका कोई सरोकार नहीं होता है। सही मायने में अगर सरोकार रहा होता तो क्या यह नेता इस भीड़ की जान के साथ ऐसे खुला खिलवाड़ कर रहे होते? लोग आमतौर पर यह सवाल करते देखे जाते हैं कि क्या कोरोना इन नेताओं की रैलियोेंं और जलसों में आने से डरता है और क्या कोरोना सिर्फ रात के अंधेरे में सुनसान सड़कों पर घूमता है क्या दिन के उजाले से डरता है? लेकिन यह सब बातें गलत है और इस देश के नेताओं के दोहरे चरित्र और दोहरे मापदंडों का प्रतीक है। बीते महीनों में हुए पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान देखा गया था कि चुनावी राज्यों में रैलियों और जनसभाओं के कारण कोरोना केसों में 125 फीसदी से लेकर 200 फीसदी तक अधिक वृद्धि दर्ज की गई तथा मौतों में भी भारी वृद्धि देखी गई थी, लेकिन इन नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ा था। अब एक बार फिर पांच राज्यों में चुनाव से पूर्व कोरोना केसोें में भारी इजाफा हो रहा है। तथा ओमीक्रोन के मामले भी तेज रफ्तार से बढ़ रहे हैं लेकिन आम आदमी के लिए तमाम दिशा निर्देश देने और कानून गढ़ने वाले रैलियों और जनसभाओं में इस कदर व्यस्त और मस्त हैं कि उनके लिए आम आदमी की जान से ज्यादा जरूरी चुनाव और उनकी जीत है। इन जनसभाओं में न मास्क जरूरी है और न दो गज की दूरी संभव है। नेता अच्छी तरह से जानते हैं कि इसके क्या परिणाम होंगे? लेकिन उन्हें भला कोई कैसे रोक सकता है? न्यायालय का सुझाव भी उनके लिए कोई मायने नहीं रखता है। क्या ऐसी सत्ता का और ऐसी नेताओं का तथा उनकी रैलियों का आम जनता को बहिष्कार नहीं कर देना चाहिए? जिस दल या नेता को जनता की जान की चिंता न हो क्या उसे वोट देना चाहिए? इसका निर्णय जब तक जनता खुद नहीं करेगी जनता इन नेताओं की नजर में भेड़ बकरी की तरह ही बनी रहेगी।