अधिकतम मतदान जरूरी

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आज दूसरे चरण का मतदान हो रहा है इस चरण में उत्तराखंड की सभी 70 सीटों और उत्तर प्रदेश के 9 जिलों की 55 सीटों सहित कुल 125 विधानसभा सीटों के लिए वोट डाले जा रहे हैं। भले ही चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों ने अपने चुनावी लोक लुभावन भाषणों और घोषणा पत्र के जरिए जनता से कुछ भी कहा गया हो और चुनाव प्रचार थमने के बाद मतदान से पूर्व सोशल मीडिया पर तरह—तरह के आपत्तिजनक ऑडियो और वीडियो के जरिए दुष्प्रचार में भी कोई कोर कसर उठाकर न रखी गई हो लेकिन आम लोग या जिन्हें मतदाता कहा जाता है उन पर इसका बहुत अधिक प्रभाव होता नहीं दिख रहा है। भले ही यह दुखद है कि इस चुनाव को भी हर बार की तरह जातीय और सांप्रदायिक रंग देने में नेताओं और असामाजिक तत्वों द्वारा अपनी कोशिशों में कोई कमी नहीं रखी गई है लेकिन काफी हद तक समझदार हो चुके परिपक्व मतदाताओं पर इसका वैसा असर नहीं देखा जा रहा है जैसा पूर्व चुनावों में रहा है। हिंदुस्तान—पाकिस्तान जिन्ना और गन्ना से लेकर हिजाब और अयोध्या, काशी से लेकर मथुरा तक के तमाम मुद्दे चुनावी अखाड़े में कुंद ही नजर आए हैं। चुनाव में लोगों ने महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के मुद्दों को भी कम अहमियत नहीं दी है इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश की जनता विकास और अमन शांति को सर्वाेच्च प्राथमिकता पर रखती है। सब की चाहत यही है कि उनके प्रांत में एक ऐसी सरकार बने जो भय मुक्त और भ्रष्टाचार मुक्त शासन प्रशासन दे सके लेकिन इसके बीच भावनात्मक मुद्दों के असर को भी नकारा नहीं जा सकता यह सोचना गलत होगा अगर ऐसा होता तो फिर राजनीतिक दलों द्वारा इस आधार को सामने रखकर प्रत्याशी चयन भी नहीं किया जाता। और न चुनाव जातीय आधार पर जनगणना का विषय चुनावी मुद्दों में शामिल हो पाता। मतदाताओं के पास अपने वोट पर फैसला करने की लिए उनके अपने—अपने मापदंड है जिसके आधार पर वह अपना वोट दे रहे हैं। समय के साथ चुनाव के तौर—तरीके ही नहीं बदले हैं मतदान की प्रक्रिया में भी बदलाव आया है। लेकिन चिंतनीय मुद्दा यह है कि मतदान के प्रति रुझान में अभी भी कोई खास फर्क आता नहीं दिखा है। बीते 5 दशकों में यह मतदान का प्रतिशत सिर्फ 15 फीसदी ही आगे बढ़ सका है और इसकी सुई अभी भी 60 फीसदी के आस—पास ही अटकी हुई है। जबकि निर्वाचन आयोग द्वारा मतदाताओं को जागरूक बनाने और उनकी सुविधाओं को बढ़ाने की तमाम कोशिशें की गई है। इसका एक अहम कारण है नेताओं और राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता मेंं आई कमी भी है। एक देश के मजबूत लोकतंत्र के लिए जन सहभागिता का अधिकतम होना जरूरी है जब तक सिर्फ आधे मतदाता सरकार बनाते रहेंगे लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता है इसके लिए 75 से 80 फीसदी मतदान संतोषजनक कहा जा सकता है। जब सब कुछ डिजिटल हो रहा है तो मतदान भी घर बैठे डिजिटल क्यों नहीं हो सकता। इस पर विचार करने की जरूरत है। हो सकता है कि इससे चुनावी व्यवस्था और पारदर्शी, शुभम व सुदृढ़ हो जाए।

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