यह कैसा लोकतंत्र?

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उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट के बाद उत्तराखंड हाई कोर्ट द्वारा भी केंद्रीय निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी कर जनसभाओं में जमा होने वाली भीड़ और कोरोना के संभावी खतरेे के मद्देनजर चुनावों को स्थगित करने पर जवाब मांगा गया है। अदालतों में इस बाबत जो जनहित याचिकाएं दायर की जा रही हैं उससे साफ है कि देश का आम आदमी इस संभावित कोरोना के बड़े खतरे को भांप रहा है और अदालतें भी इसे समझ रही हैं। अगर किसी की समझ में नहीं आ रहा है तो वह सत्ता में बैठे लोग ही हैं जो एक—एक दिन में ताबड़तोड़ कई कई रैलियां कर रहे हैं और लाखों लाख लोगों की भीड़ इन रैलियों में जुटाने को अपनी राजनीतिक सफलता माने बैठे हैं। खुद प्रधानमंत्री मोदी जो लोगों को सतर्कता का पाठ पढ़ाते हैं तथा मास्क और दो गज की दूरी की जरूरी बताते हैं हर रोज बड़ी बड़ी रैलियां और उद्घाटन तथा शिलान्यासों में खूब भीड़ जुटा रहे हैं। केंद्र सरकार राज्यों को कोरोना का प्रोटोकॉल (गाइडलाइन) जारी कर रही है और राज्य सरकारें आम आदमी पर पाबंदियों का शिकंजा कस रही हैं जिस की हद यह है कि अगर एक अकेला आदमी भी अपनी कार चलाते हुए अगर मास्क नहीं लगाता है तो उसका चालान काट दिया जाता है। तमाम राज्यों में नाइट कर्फ्यू लगा दिया गया है और जहां रात में कर्फ्यू है वही दिन में नेताओं की रैलियां हो रही है। आम आदमी पूछ रहा है कि भाई यह क्या तमाशा है? दून और मसूरी के व्यापारियों में इसे लेकर भारी नाराजगी है उनका कहना है कि सत्ता में बैठे लोग क्यों उनका व्यापार चौपट करने में लगे हैं। उनकी मांग है कि या तो तीन दिन के लिए नाइट कर्फ्यू हटाया जाए या फिर रैलियां भी बंद की जाए और चुनाव को भी टाला जाए। लेकिन सवाल यह है कि आज के दौर के लोकतंत्र में लोक (आम आदमी) की सुनता ही कौन है तंत्र (सत्ता) की तानाशाही ही लोक पर इस तरह हावी हो चुकी है कि लोकतंत्र में लोक की बात ही बेमानी हो गई है। न न्यायपालिका की कोई सुनने को तैयार है न आम आदमी की। भले ही हमारे संविधान में लोकतंत्र का मतलब जनता के लिए, जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सही जिनका कर्तव्य जनता की सेवा और जन कल्याण के कार्य बताए गए हो लेकिन वर्तमान लोकतंत्र पर तानाशाही इस कदर हावी हो चुकी है कि वहां अब लोक (आम आदमी) का मतलब सिर्फ वोटिंग मशीन हो गया है। अभी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कांग्रेस के स्थापना दिवस पर भी सत्ता के तानाशाह होने का आरोप लगाया गया था। संसद में तीन कृषि कानूनों को बिना चर्चा के पारित किए जाने के दौरान और किसान आंदोलन के दौरान भी हम सब इस तानाशाही की झलक देख चुके हैं। अब यही तानाशाही कोरोना नियमों को लेकर भी की जा रही है अगर ऐसा नहीं होता तो यह चुनावी रैलियां संभव ही नहीं थी।

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