दल बदलुओं के सहारे सारे दल

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राष्ट्रहित व लोक हित कार्यो को दी तिलांजलि
सत्ता के लिए नेता कुछ करने को तैयार

देहरादून। वर्तमान दौर में दल बदल राजनीति का दूसरा पर्याय बन चुका है। सत्ता हासिल करने का यह सबसे आसान तरीका हो गया है, किसी भी राज्य में होने वाले चुनाव से पूर्व जिस तरह से नेताओं द्वारा कपड़ों की तरह दल बदले जा रहे हैं ऐसे किसी भी नेता से संसदीय मर्यादाओं या किसी भी दल से उसकी राजनीतिक व राष्ट्रीय विचारधारा की अपेक्षा करना बेमानी हो गया है। राजनीति के हमाम में सभी नेता और दल नंगे हो चुके हैं। विकास और जनहित कार्यों के दम पर सत्ता हासिल करने की क्षमता खो चुके हैं इन नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए सत्ता तक पहुंचने का जरिया दलबदल ही रह गया है जिसका ताजा उदाहरण उत्तराखंड में होने वाली दलबदल की घटनाएं हैं।
भले ही अभी उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव में तीन चार महीने का समय शेष है लेकिन आए दिन सूबे के नेता अपने ट्विटर हैंडल से इस तरह की खबरे देकर की उनकी पार्टी में अमुख दल के एक प्रमुख नेता शामिल होने जा रहे हैं। एक दूसरे दल के नेताओं को चौकाने का काम कर रहे हैं। दून से लेकर दिल्ली तक सिर्फ इन दिनों कौन आया और कौन गया का खेल चल रहा है। भाजपा दो निर्दलीय विधायक प्रीतम पंवार और राम सिंह खेड़ा तथा एक कांग्रेसी समर्थक विधायक राजकुमार को भाजपा में शामिल कर यह करती देखी गई कि कांग्रेस में भगदड़ मची है कांग्रेस डूबता जहाज है उस पर कौन बैठना चाहेगा। हमें तो नो एंट्री का बोर्ड लगाना पड़ेगा जैसा प्रचार करती दिखी। भाजपा नेताओं के रवैया से ऐसा ही लग रहा था जैसे चंद नेताओं के दल बदल से उसने विधानसभा चुनाव में न सिर्फ जीत हासिल कर ली हो अपितु अपने नारे अब की बार 60 के पार को छू कर इतिहास रच डाला हो।
यह हाल सिर्फ भाजपा का नहीं है जो तीन विधायक व एक आम आदमी पार्टी के नेता को भाजपा की सदस्यता दिला चुकी है। कांग्रेस अब यशपाल आर्य और उनके विधायक बेटे संजीव आर्य के कांग्रेस में वापसी के बाद उसी की राह पर चल पड़ी है। कांग्रेसी नेताओं के तो पैर जमीन पर नहीं है। ऐसा लग रहा है कि वह आधे भाजपा नेताओं को कांग्रेस की सदस्यता दिला कर ही दम लेंगे और चुनाव से पहले ही दल बदल के दम पर भाजपा को परास्त कर डालेंगे।
सवाल यह है कि क्या इन दलों और नेताओं की राजनीति और सत्ता तक पहुंचने का जरिया सिर्फ दल बदल ही रह गया है। भाजपा जो बीते पांच साल से सत्ता में है और जो अपने दृष्टि पत्र में बड़े—बड़े वायदे जनता से करके सत्ता में आई थी उसने एक भी ऐसा बड़ा काम नहीं किया जो उसे पुनः सत्ता मे ला सके। सूबे की राजनीतिक स्थिति अगर यही रही तो दूसरे प्रांतों की तरह चुनाव परिणाम के बाद भी सत्ता के लिए वैसी ही जोड़—तोड़ देखने को मिलेगी जब यह राजनीतिक दल अपने विधायकों को खरीद फरोख्त से बचाने के लिए होटलों और रिसार्ट में लिए लिए फिरेंगे। राजनीति का यह रूप देख अब सूबे की जनता भी हैरान है कि क्या यही है हमारे जन सेवक।

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