साल 2024 की शुरुआत से पहले ऐसा लग रहा था कि देश में सब कुछ अच्छा ही अच्छा है। चाहे सरकार की बात हो या फिर संवैधानिक संस्थाओं की अथवा देश की राजनीतिक पार्टियों की बात हो या देश के लोकतंत्र, मीडिया और न्यायपालिका की। सब कुछ तो आल इज वेल था फिर आखिरकार बीते दो—तीन महीनों में ही ऐसा क्या हो गया कि सब कुछ गलत ही गलत लगने लगा है। अगर इसकी ठीक से पड़ताल की जाए तो एक बात साफ समझ में आती है कि तब कुछ ठीक था ही नहीं बस सब कुछ ठीक दिखाने का प्रचार सत्ता में बैठे लोगों और प्रशासन में अधिकारियों और मीडिया जिसे अब गोदी मीडिया के नाम से जाना जा रहा है, द्वारा ही ठीक बताया और दिखाया जा रहा है। संसद में विपक्ष की बात को कोई सुनने को तैयार नहीं था और सड़कों पर अगर कोई आंदोलन के लिए उतरने का साहस करता तो उसकी खबर या तो लाठियां भांज कर की जाती थी या फिर सड़कों पर घसीट कर। अब जब लोकसभा चुनाव सर पर है तो विपक्षी दलों द्वारा सड़कों से लेकर गांव देहात तक और किसानों द्वारा दिल्ली की घेराबंदी के जरिए इसके खिलाफ आवाज बुलंद की जाने लगी है। उनकी इस आवाज को थोड़ा सा बल न्यायालीय फैंसलों से भी मिला है जिनके माध्यम से देश की सर्वाेच्च अदालत द्वारा आईना दिखाने का साहस किया गया। यह अलग बात है कि सरकार के फैंसलों को गलत बताकर उन्हें रद्द किए जाने के बावजूद भी सत्ता में बैठे लोग सच को दबाने का प्रयास कर रहे हैं और मीडिया सरकार को भरपूर संरक्षण दे रहा है। लेकिन यह समय ही बतायेगा कि वह कहां तक कामयाब होते हैं। वर्तमान दौर में कुछ रहस्यों से पर्दा खिसकने से यह साफ लगने लगा है कि बात सिर्फ दाल में कुछ काला होने तक ही सीमित नहीं है अपितु पूरी दाल ही काली है। सब कुछ झूठ ही झूठ है। सत्ता में जो लोग बैठे हैं वह जो कुछ भी कह रहे हैं वह सब झूठ है टीवी चैनलों पर लोग जो देख रहे हैं वह सब कुछ गलत है और अखबारों में जो लोग पढ़ रहे हैं वह सब कुछ गलत है। स्थिति अगर ऐसी है कि लोगों को मीडिया से ही भरोसा खत्म हो रहा है तो यह देश के लोकतंत्र के लिए सबसे ज्यादा चिंताजनक है ऐसी स्थिति में अगर इसको कोई बचा सकता है तो वह सिर्फ और सिर्फ आम जन मानुष का विवेक ही है लेकिन झूठ के इस दौर में जहां जनता के सामने सिर्फ झूठ ही परोसा जा रहा हो उसका विवेक भी सच को जानने और परखने में कितना सफल हो सकता है बहुत ही मुश्किल सवाल है। मीडिया में अभी से ओपिनियन पॉेल के नतीजे आ रहे हैं। कोई भाजपा को 300 के पार तो कोई 400 के पार भेज रहा है। जितना पूरे चुनाव प्रचार पर खर्च आना चाहिए था उससे अधिक सत्ताधारी दल अब तक विज्ञापनों पर खर्च कर चुका है। कहते हैं जो दिखता है वही बिकता है ऐसी स्थिति में जनमानस का विवेक कितना काम करेगा कुछ नहीं कहा जा सकता है यह देश की राजनीति, लोकतंत्र व संवैधानिक संस्थाओं के लिए संक्रमण का काल है यही सच है।