अंधेर नगरी चौपट राजा

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नैनीताल हाई कोर्ट द्वारा बीते कल लोकायुक्त की निष्क्रियता को लेकर सूबे की सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए 8 हफ्ते के अंदर लोकायुक्त की नियुक्ति करने के आदेश दिए हैं। क्या यह घोर लापरवाही की मिसाल नहीं है कि बीते 10 सालों से लोकायुक्त के बिना ही भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए बनाई गई यह संस्था चल रही है। 10 सालों से लोकायुक्त कार्यालय के कर्मचारी सरकार से वेतन भत्ते ले रहे हैं और सरकार उन्हें वेतन भत्ते दे रही है। 2013 से लोकायुक्त का पद खाली है और इस संस्था द्वारा कोई भी काम नहीं किया जा रहा है फिर भी सरकार कार्यालय खर्च और वेतन भत्तों पर 2 से 3 करोड रुपए सालाना खर्च कर रही है और उसने 29 करोड़ रूपये जो जनता की गाढ़ी कमाई के थे पानी में बहा दिए हैं? ऐसे में सरकार से यह पूछा जाना चाहिए कि उसने ऐसा क्यों किया। लोक सेवकों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए जिस लोकायुक्त संस्था का गठन किया गया था उसको दरअसल खुद सत्ता में बैठे लोगों के द्वारा ही निष्क्रिय बनाने का काम किया गया है। सूबे में बीते दो दशक में सैकड़ों भ्रष्टाचार के बड़े मामले सामने आ चुके हैं। अगर इन मामलों की लोकायुक्त द्वारा निष्पक्ष जांच की गई होती तो अब तक दर्जनों अधिकारी और नेता जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गए होते। ऐसी स्थिति में उनके पास अपने बचाव का इससे बेहतर और भला क्या तरीका हो सकता था कि लोकायुक्त संस्था को ही निष्क्रिय बना दिया जाये। यही कारण है कि हाईकोर्ट ने सरकार के इस कृत्य को लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम 2013 की धारा 63 का उल्लंघन माना है और यह कड़ा फैसला सुनाया है। यह हास्यापद बात है कि भाजपा की पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में 2017 में लाया गया लोकायुक्त कानून अभी तक विधानसभा में लंबित पड़ा है। तत्कालीन पूर्व सीएम त्रिवेंद्र रावत ने सत्ता संभालते ही इसका प्रस्ताव विधानसभा में लाया था और फिर खुद ही इसे विधानसभा समिति को समर्पित कर दिया गया था। हैरान करने वाली बात यह है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत जिन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति का सबसे अधिक प्रचार किया था लेकिन एनएच—74 जैसे भूमि घोटालों की सीबीआई जांच के लिए केंद्र सरकार की संस्तुति को लेकर केंद्रीय सड़क और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने एक पत्र लिखकर कड़ी नाराजगी जताई थी जिसका चर्चा मीडिया में काफी समय तक रहा। इसके बाद किसी भी भ्रष्टाचार व घोटाले को लेकर किए जाने वाले सवालों पर त्रिवेंद्र सिंह रावत कन्नी काटते देखे गए एक बार तो उन्होंने लोकायुक्त के गठन पर सवाल किए जाने पर पत्रकारों से यहां तक कहा कि जब राज्य में भ्रष्टाचार ही नहीं रहा तो फिर लोकायुक्त की भी क्या जरूरत है? क्या इससे हैरान करने वाली बात कोई और हो सकती है? वर्तमान में हाईकोर्ट ने अगर 8 सप्ताह के अंदर राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति का आदेश और लोकायुक्त की नियुक्ति तक उसके तमाम खर्चों पर रोक लगा दी गई है तो इससे त्रिवेंद्र सिंह और उन तमाम अन्य नेताओं को यह समझ आ गया होगा कि राज्य में भ्रष्टाचार भी है और लोकायुक्त की जरूरत भी है जो बीते 10 सालों में सत्ता शीर्ष पर रहे हैं। लोकायुक्त एक स्वतंत्र संस्था है जो राजपत्रित अधिकारियों व नेताओं के भ्रष्टाचार की निष्पक्ष जांच कर सकती है। देखना यह है कि कि अब सरकार लोकायुक्त की नियुक्ति कब तक करती है जिससे भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सके।

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