सूबे के कांग्रेसी नेताओं ने जैसे कसम खा ली है कि पार्टी रहे या न रहे लेकिन हम नहीं सुधरने वाले हैं। राज्य गठन से लेकर अब तक सूबे के कांग्रेसी नेताओं में कभी भी अपेक्षित एकता और एकजुटता नहीं देखी गई। राज्य में पहली बार जब कांग्रेस सत्ता में आई और एनडी तिवारी को मुख्यमंत्री बनाया गया था तो उनकी ताजपोशी के साथ ही कांग्रेस के अंदर अंर्तकलह और गुटबाजी शुरू हो गई थी। एनडी तिवारी को कुर्सी से हिला पाने में भले ही उनके विरोधी गुट के नेता सफल नहीं हो सके हों लेकिन उनके खिलाफ षड्यंत्र रचने में कांग्रेसी नेताओं ने कोई कोर कसर उठाकर नहीं रखी। कांग्रेस को जब दोबारा सत्ता में आने का मौका मिला तो सीएम की कुर्सी को लेकर जिस तरह की खींचतान और मारामारी देखी गई वह किसी से छिपी नहीं है। उस दौरान भी प्रदेश कांग्रेस एक बड़े विभाजन से बाल—बाल बची थी जब विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हाईकमान द्वारा किया गया था। बहुगुणा को कुर्सी पर बैठाने के साथ जो विवाद शुरू हुआ था वह उनके कुर्सी से हटाए जाने के बाद भी समाप्त नहीं हुआ जिसके परिणाम स्वरूप कांग्रेस में बड़ी टूट—फूट हुई। हरीश रावत येन केन प्राकरेण सीएम की कुर्सी तक तो पहुंच गए लेकिन उसके बाद से आज तक कांग्रेस ने सिर्फ अवनीति और अवनीति ही देखी है बात चाहे कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे की हो या फिर चुनावी समर की कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा है। बात चाहे लोकसभा चुनाव की रही हो या फिर विधानसभा चुनावों की। इस दौरान कांग्रेस ने अपने न्यूनतम स्तर के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। लोकसभा की सभी सीटों पर भाजपा का कब्जा है वही वह दूसरी बार भी बंपर बहुमत के साथ सूबे की सत्ता पर काबिज है। हालात यह है कि तमाम पुराने कांग्रेसी कांग्रेस छोड़कर भागने पर आमादा हैं भले ही उन्हें भाजपा और आप में जाकर भी कुछ मिले न मिले लेकिन वह कांग्रेस से मुक्ति का रास्ता तलाशने में जुटे हुए हैं। और जो चंद बड़े नेता शेष भी बचे हैं वह आज भी पार्टी की लड़ाई लड़ने की बजाय अपने—अपने वर्चस्व की लड़ाई में मशगूल है। पार्टी में इस कदर गुटबाजी हावी है कि सभी एक दूसरे को नीचा दिखाने और उसके कद में काट छांट करने का कोई मौका नहीं चूकते हैं। भाजपा से फिर कांग्रेस में आए यशपाल आर्य और डॉ हरक सिंह रावत की खिचड़ी भी अलग—अलग पक रही है वही प्रीतम सिंह और हरीश रावत भी अपनी—अपनी ढपली पर अपना—अपना राग अलाप रहे हैं और प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा इन नेताओं को कुछ भी समझाने व कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं है। वैसे भी इन कांग्रेसी नेताओं में अब कोई किसी की सुनता भी नहीं है। इनके बीच व्यंग और तंजों के सिवाय कोई वार्ता नहीं होती है। प्रदेश प्रभारी और हाईकमान की किसी बात का भी इन पर कोई असर नहीं होता। जिन नेताओं को अपने भविष्य की चिंता नहीं हो उनसे पार्टी के भविष्य पर चिंतन की क्या उम्मीद की जा सकती है।